मन्नू भंडारी की एक प्रसिद्ध कृति है ‘महाभोज’। किसी दलित व्यक्ति की मृत्यू, उस पर खड़ा उठनेवाला राजनैतिक बंवड़र और राजनैतिक दलों की गुलाटियां, इनका गजब का चित्रण भंडारीजी ने किया है। इस पुस्तक का सरसरी पठन करनेवाला भी हतप्रभ रह जाता है, कि किस तरह लेखक (लेखिकाएं) समय से आगे जाकर देख सकती है।
उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में स्थित सरोहा नामक गांव में विधान सभा की एक सीट के लिए चुनाव सर पर है। बिसेसर तथा बिसू नामक एक कार्यकर्ता दलित की हत्या होती है। बिसेसर हरिजन बस्ती के अपने लोगों न्याय दिलाने के लिए लढ़नेवाला व्यक्ति है। उसकी मौत के बाद उसका दोस्त बिंदेश्वरी उर्फ़ बिंदा उसके प्रतिरोध की विरासत आगे ले जाना चाहता है। लेकिन बिंदा को भी राजनीति और अपराध के चक्र में फांसकर जेल में डाला जाता है। उसके बाद एक राजनीति की बिसात पर बिसात बिछती जाती है और सत्ताधारी वर्ग, सत्ता प्रतिपक्ष, मीडिया और नौकरशाही जैसे कई खिलाड़ी जुड़ते जाते है। यह एक नंगी तस्वीर है, कि किस तरह शासन और तंत्र मिलकर दलितों, गरिबों को कुचलते है। उनका हक मारते है और उन्हें न्याय दिलाने के नाम पर अपनी जेबें भरते है।
जनवरी 2016 में हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या ने की, तबसे जो माहौल लिबरलों और मीडिया ने बनाया है वह बरबस ‘महाभोज’ की याद दिलाता है। सेकुलरिज्म का दम भरनेवाले दलों और वाम-झुकाववाली मीडिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी, कि भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में दलितों पर अत्याचार चरम पर है और यह एक पूर्णतः जातिवादी शासन है। ऐसे लोगों के लिए यह बताना उचित होगा, कि मन्नू भंडारीजी का यह उपन्यास सर्वप्रथम 1979 में रचित था। यह वर्ष वह है जब भाजपा का वर्चस्व छोड़ो, उसका अस्तित्व भी नहीं था। वह अपने पूर्ववर्ती चोले यानि जन संघ के रूप में भी नहीं थी। वह जनता पार्टी नामक एक कुनबे का हिस्सा थी जिसमें हर रंग के दल शामिल थे।
स्पष्ट है, कि दलितों पर अत्याचार हमारे देश का दुःखद वास्तव है। इसमें कांग्रेस और भाजपा के शासन में फर्क करना उचित नहीं होगा। बल्कि सच्चाई यह है, कि अगड़ी जातियों के वर्चस्व के कारण कई बार कांग्रेस ने दलित अत्याचार में बड़ी भूमिका निभाई है। जिस समय भंडारीजी का ‘महाभोज’ आया था, लगभग उसी समय महाराष्ट्र में दलित पैंथर का उदय हुआ था। राज्य के कई गांवों में दलितों पर हुए अत्याचार के खिलाफ एक उग्र विद्रोह के रूप में यह आंदोलन खड़ा हुआ था। पैंथर कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर दलित बस्तियों से भेंट करते और अत्याचारियों से दो हाथ करते।
इस सारे इतिहास से बेखबर होकर, या कहें कि उसकी तरफ आंखें मूंदकर, दलितों पर लगातार हो रहे अत्याचार के मुद्दे पर कांग्रेस ने देशव्यापी उपवास शुरू किया। उसमें जो फजीहत उसकी हुई है वह बिल्कुल स्वाभाविक है। जिसका अपना गिरेबां साफ नहीं वह और को क्या उपदेश देगा?
धरना और उपवास के पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एक रेस्तरां में खाना खाते हुए देखे गए। रेस्तरां में कांग्रेस नेताओं की छोले भटूरे खाती हुई तस्वीर भी वायरल हुई। कांग्रेस नेता अरविंदर सिंह लवली ने तो बाकायदा मान लिया, कि ये तस्वीरें सोमवार सुबह से पहले की है। उससे पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को लेकर भी कांग्रेस को शर्मिंदगी उठानी पड़ी। यह उपवास एक उपहास बनकर रह गया और इसके लिए सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस जिम्मेदार है।
कांग्रेस की इस नौटंकी ने अगर कुछ साबित किया है तो यह, कि वह अभी भी दिखावे की राजनीति औरलोगों की भावनाओं से खेलने में अभी भी नहीं हिचकिचाती है। राजनीतिक दल इस खेल में माहीर तो थे ही, वे अब बेशर्मी की हदें भी पार कर गए है। एससी-एसटी एक्ट पर जो फैसला दिया है वह उच्चतम न्यायालय ने दिया है। लेकिन राहुल गांधी इसका ठिकरा भाजपा के सर पर फोड़ रहे है।वैसे कांग्रेस यह भी बताएं, कि आखिर वह इतनी ही दलित हितैषी थी तो उसके 40 वर्षों के शासन के पश्चात् इस एससी-एसटी एक्ट को 1989 में बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ी?
तात्पर्य यह, कि कांग्रेस को सचमुच दलितों की चिंता होती तो इस ‘महाभोज’ का आयोजन नहीं होता।
यह तो बस कर्नाटक विधानसभा चुनाव की कार्यशाला और सन 2019 के आम चुनाव का अभ्यास है, बस!