न्या. लोया की मृत्यू के मामले में, जो अपने आप में साफ था, खुद उच्चतम न्यायालय ने सफाई दी है। अपना राजनीतिक अजेंडा चलाने के लिए जो लोग न्यायालय का उपयोग करना चाहते हैं उनके लिए इससे बड़ा तमाचा और नहीं हो सकता। न्या. बी. एच. लोया की मौत के के पीछे कोई भी गुत्थी नहीं थी और वह तू पूरी तरह से प्राकृतिक कारणों से हुई थी, यह न्यायालय ने बिना लाग लपेट के बता दिया।इतना ही नहीं इस पूरे मामले के पीछे कोई छुपा हुआ अजेंडा होने का का निरीक्षण भी दर्ज किया है। भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्या. खानविलकर और डी. वाई. चंद्रचूड की तीन सदस्यीय पीठ ने अपना फैसला साफ शब्दों में सुनाया है। हालांकि इससे सूचना युद्ध के सैनिकों पर कोई असर होने की गुंजाईश नहीं है।
देश की सभी यंत्रणाओं को लेकर संदेह पैदा करना, गलतफहमियां फैलाना और षड़यंत्र सिद्धांत प्रसारित करने का उनका काम बेखटके चलता रहगा। इस वर्ष के जनवरी महीने में मुख्य न्यायधीश के विरोध में पत्रकार वार्ता कर संदेह का माहैल खड़ा करनेवालों को भी उन्होंने जबरदस्त जमाल गोटा पिलाया है।
न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं के वकील दुष्यंत दवे, इंदिरा जयसिंग और प्रशांत भूषण को भी अच्छी खासी सुनाई है – सुस्पष्ट और निष्पक्ष! अर्थात् आधी रात के बाद न्यायालय के दरवाजे खोल कर साबित आतंकवादी को बचाने का नाट्य उसमें नहीं है, इसलिए उन्हें यह फैसला शायद रास ना आए। उस आशय की प्रतिक्रियाएं भी उनकी तरफ से आई है। संस्थात्मक औचित्य की (सिविलिटी) की साख न रखना और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के विरोध में बेतरतीब आरोप करना, इसके लिए इन तीनों को न्यायालय ने खरी खोटी सुनाई है।
राजनैतिक, व्यक्तिगत और व्यापारी हित संबंधों के लिए जनहित याचिका (पीआइएल) का दुरुपयोग करने को लेकर भी पीठ ने उपदेश सुनाया है। इतना ही नहीं, सीधे-सीधे छूटे और पक्षपाती सामग्री प्रकाशित करनेवाले आंदोलनकारी माध्यमों पर भी न्यायालय ने कटाक्ष किया है। न्याय संस्था को कलंकित करने और न्यायतंत्र को गुमराह करने की यह कोशिश है, यह भी न्यायालय ने ही बता दिया है।
न्या. लोया का निधन दिसंबर 2014 में हार्ट अटैक के कारण हुआ था। नागपुर में अपने एक सहयोगी की बेटी की शादी के लिए कुछ सहयोगियों के साथ वे गए थे। सोहराबुद्दीन शेख के झूटे एन्काउंटर मामले की सुनवाई न्या. लोया के समक्ष चल रही थी।
इस मामले में एक आरोपी थे अमित शाह जो समय भाजपा के अध्यक्ष है। आज की घड़ी में नरेंद्र मोदी के बाद यदि कोई लिबरलों की आंख में खटकता है तो वह अमित शाह है!
निरंजन टकले नामक एक पेशेवर झूठी सामग्री लिखनेवाले पत्रकार ने उतनी ही बराबरी के कैरावान नामक पत्रिका में एक लेख प्रकाशित किया। न्या. लोया की मृत्यू संदेहजनक स्थिति में हुई। आरोपी को छुड़ाने के लिए उन्हें 100 करोड़ रुपयों की ओफर दी गई लेकिन उन्होंने उसे नकार दिया और इसलिए उनका अप्राकृतिक निधन हुआ, इस आशय की सामग्री उसमें थी। यह लेखन काफी हद तक सेमी फिक्शन के माफिक था। टकले की ख्याति ऐसी, कि उनके द्वारा प्रकाशित समाचार (जैसे सावरकर द्वारा माफी मांगना) और शेअर की हुई सामग्री (जैसे कल्पना इनामदार का गोपाल गोडसे की नातिन होना) झूठी साबित हुई है। इस पर प्रश्न पूछनेवाले को वे विकृत और पागल कह सकते हैं इतना लिबरल अधिकार उन्हें है।
कैरावान में प्रकाशित वह लेख वह सीधे-सीधे राजनैतिक अभिनिवेश से लिखा गया था। इसलिए भाजपा-विरोधी मीडिया ने उसे सिर-आंखों पर बिठाया। कांग्रेस पार्टी ने तो उसकी वकालत की ही, राहुल गांधी ने लोया की मृत्यू में भाजपा अध्यक्ष का हाथ होने का संकेत कई बार दिया। इस प्रकरण में उन्होंने पत्रकार वार्ता की थी और 150 सांसदो को साथ में लेकर वे राष्ट्रपति के पास भी पहुंचे थे।
अर्थात् इसमें इस प्रकरण में असल में ही कोई दम नहीं था इसलिए उस का प्रतिफल कुछ होने की संभावना भी नहीं थी। इंडियन एक्सप्रेस जैसे सीधे तौर पर सरकार विरोधी अखबार ने भी कैरावान के लेख को तार-तार कर दिया था। लेकिन न्यूज़ के नाम पर सोशल मीडिया पर ठिकरा फोड़नेवाले किसी भी कलमबाज़ ने इस सफेद झूठ को लेकर एक अक्षर भी नहीं निकाला। जो निकाला वह मोदी-शाह को तोप के मुंह में देने के लिए ही।
लेकिन इस मामले में शायद ऐसा कुछ हुआ जिसकी लिबरल गैंग के को उम्मीद नहीं थी। खुद न्यायाधीश और न्यायालय को ही मुलजिम के कटघरे में खड़ा करने के कारण उच्चतम न्यायालय ने तुरत-फुरत उसकी दखल ली और केवल तीन महीनों में इसकी सुनवाई पूरी की।
अर्थात् न्यायालय सत्य को उजागर करें यह लिबरलों का उद्देश था ही नहीं। जहां आग है वह धुआं है, यह आम मनुष्य की प्रवृत्ति है। इसलिए चाहे जिस तरह से हो इन्हें धुआं खड़ा करना है ताकि आग-आग के ललकारें वे लगा सकें। शायद ऐसा निर्णय आने का उन्हें अंदेशा था इसीलिए जनवरी महीने में न्याय तंत्र के ही कुछ लोगों ने विद्रोह का दृश्य मंचित किया था। अब दूध और पानी अलग होने के बावजूद दूध में पानी होने का संदेह कायम रहेगा।
न्यायाधीश पर ही गुर्रानेवाले वरिष्ठ वकील, सुपारी लेकर सामग्री प्रकाशित और प्रसारित करनेवाली मीडिया और पूरी तरह परावलंबी बुद्धि के गैर-जिम्मेदाराना राजनेताओं से न्यायतंत्र और देश को बचाने की जरूरत है।
लिबरलों का पसंदीदा वाक्य प्रयोग करें तो – “पहले कभी नहीं इतनी जरूरत है”!
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काश केरल इंडिया में होता… काश श्रीजीत कश्मीरी होता!
इस देश में मानवाधिकार और अत्याचार विरोध के नाम पर एक बड़ा तबका सक्रिय है। देश में कहीं भी, कुछ भी घट रहा हो जिसमें ऊपरी तौर पर, सतही तौर पर कोई हिंदू अपराधी है तो यह वर्ग धड़ल्ले से आगे आकर अपनी बातें सामने रखता है। मेंढक को जिस तरह बारिश की सुगबुगाहट लगती है, गिद्ध को जैसे मांस की बू आती है, मच्छरों को जैसे गटर की खबर लगती है और चीटियों को जैसे गुड़ का पता चल लगता है वैसे ही इन लोगों को अत्याचार, ज़ुल्म और अन्याय आदि की सुगबुगाहट लगती है और तरह-तरह के चोलों में यह लोग सामने आने लगते है। लिबरल, सेकुलर माध्यमों के कृपा प्रसाद से इन्हें अच्छी खासी सुर्खियां भी मिल जाती है। इनकी शर्त बस इतनी होती है, कि इन सारी घटनाओं में पीड़ित व्यक्ति हिंदू नहीं होना चाहिए या उसे अपने भारतीयता पर गर्व नहीं होना चाहिए।
ऐसा नहीं होता तो इन लोगों के रडार पर सिर्फ कश्मीर के आतंकवादी या बस्तर के नक्सली नहीं होते। केरल में जिस तरह अपने भारतीय होने पर गर्व करने वालों पर जुल्म हो रहे है उसकी सुध बुध वह लोग जरूर लेते। श्रीनगर में किसी को जीप से बांधने पर इनका दिल जिस तरह कसमसाता है वैसे ही केरल में किसी का हाथ पांव तोड़ने पर उनके मन में टीस उठती।
अभी ताजा बात लीजिए। पिछले 2 दिनों से केरल जल रहा है। जम्मू कश्मीर के कठुआ और उत्तर प्रदेश के उन्नाव की घटनाओं के विरोध में केरल की कुछ कथित न्यायवादी संगठनों ने जगह-जगह मोर्चे निकालें। अब केरल में तो कम्युनिस्टों का राज है और जैसे कि कम्युनिस्ट शासन में होता ,है हर विरोध प्रदर्शन हिंसा में तब्दील हो जाता है। उसी तरह राज्य में कई स्थानों पर हिंसा हुई। खासकर कासरगोड जिले में नडप्पुरम, वडक्करा और पेरंबरा इन जगहों पर बुधवार को हुई हिंसा की कई घटनाएं दर्ज हुई। विलियापल्ली नामक गांव में भाजपा के कार्यालय पर हमला हुआ। पेरंबरा में शिवाजी सेना नामक संगठन के दो कार्यकर्ताओं पर बम हमला हुआ। अंदेशा यह है, कि यह हमला सीपीएम के कार्यकर्ताओं ने किया।
केरल पुलिस का कहना है, कि कठुआ उन्नाव की घटनाओं के विरोध विभिन्न संगठनों ने विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया था। पुलिस ने कहा कि हमने 900 लोगों को गिरफ्तार किया है। ये सभी लोग 16 अप्रैल को हड़ताल के नाम हिंसा कर रहे थे। गौरतलब है कि इस हड़ताल की पूर्व सूचना पुलिस को नहीं दी गई थी। ‘चलो कोजीकोड’ नामक इस मार्च की अपील व्हाट्सअप के माध्यम से एसडीपी के कार्यकर्ताओं ने फैलाई थी।
कुछ इसी तरह का मामला श्रीजीत का है। श्रीजीत नामक युवक को पुलिस ने एक खून के सिलसिले में गिरफ्तार किया था। पुलिस का कहना था की मृतक व्यक्ति के बेटे ने सृजित का नाम लिया था, इसलिए उसे गिरफ्तार किया गया था। हालांकि पुलिस कस्टडी में उसकी मौत हो गई। बाद में स्थानीय मीडिया ने जब मामला उछाला और उसकी तहकीकात की, तो पुलिस का यह बयान सफेद झूठ निकला। खुद मृतक के व्यक्ति ने कहा कि उसने श्रीजीत का नाम कभी नहीं लिया था। पूरी फजीहत होने के बाद सरकार ने सात पुलिसकर्मियों को निलंबित किया। इन पुलिसकर्मियों ने ताजा आरोप किया है, कि उन्हें फंसाया जा रहा है और वास्तविक दोषी कोई और है। यह कोई मायने नहीं रखता, कि श्रीजीत दलित था। चूंकि वह भाजपा से संबंधित था इसलिए उसका मरना वाजिब था शायद।
लेकिन इस मामले की रत्ती भर भी रिपोर्टिंग खुद को राष्ट्रीय मीडिया कहलाने वालों ने या मानवाधिकार के पैरोकारों ने नहीं की। उनके लिए यह मामला जैसे कभी हुआ ही नहीं। और राज्य में कम्युनिस्टों द्वारा मारे गए अनगिनत संघ भाजपा या कांग्रेस कार्यकर्ताओं की तो हम बात ही नहीं कर रहे है। इस दोगलेपन को लिबरिजम या उदारवाद या सेकुलरिज्म कहते है।
लुटियंस की नगरी में सुस्थापित लिबरलियों और सेकुलरों के लिए आइडिया ऑफ इंडिया बहुत मायने रखती है। जब भी भारत की बात आती है, भारतीय परंपराओं का बखान होता है तब इस नेहरूवादी आइडिया ऑफ इंडिया की बातें काफी उछाली जाती है। चूंकि केरल में कम्युनिस्टों का दबदबा है और कम्युनिस्टों की हिंसा के भुक्तभोगी हिंदुत्ववादी शक्तियां है, इसलिए शायद उनके आइडिया ऑफ इंडिया के मानचित्र में केरल नहीं आता है। उनके मानवीय सरोकारों में श्रीजीत जैसे लोग नहीं आते है, क्योंकि शायद वह मनुष्य ना हो या फिर अधिकार प्राप्त करने की योग्यता उन मानवों में नहीं हो। बहरहाल, इस दोगलेपन का अपना एक तंत्र है जो हमें इससे अवगत नहीं होने देता। विचारों के परदे के पीछे उसे छुपाये रखता है।
शुक्र है हमारे पास सोशल मीडिया जैसे वैकल्पिक समाचार स्रोत है जिनके कारण यह दोगलापन समय-समय पर उजागर होता है। लेकिन एक चिंतित नागरिक के नाते यह विचार मन में अपने आप आता है, कि काश! इनके इंडिया में केरल होता, कि काश! श्रीजीत भी कश्मीरी होता!
मार्क ज़करबर्ग – पकड़ा गया वह चोर
अमेरिकी सीनेट की वाणिज्य और न्यायपालिका समितियों की संयुक्त सुनवाई से पहले फेसबुक के संस्थापक मार्क ज़करबर्ग ने करोड़ों उपयोगकर्ताओं से माफी मांग ली। इस युवा अरबपति के लिए निश्चय ही यह एक शर्मिंदगी का पल होगा। इस माफी के बाद फेसबुक के खून के लिए प्यासी कई आत्माओं को तत्कालिक शांति मिल गई होगी।
फेसबुक के संस्थापक ने अपने चिर परिचित परिधान टी-शर्ट और जीन्स का त्याग कर बिजनेस सूट को अपनाया इसी से उनकी गंभीरता का पता चल जाता है। यह केवल एक सतही बदलाव नहीं था, बल्कि यह एक मनोदशा और मानसिकता के बदलाव का चिन्ह भी था। जहां टी-शर्ट और जीन्स युवा ऊर्जा और उत्साह का प्रतीक है वहीं बिजनेस सूट गंभीरता और उत्तरदायीत्व का प्रतीक है। सुनवाई के समय यह परिधान कर ज़करबर्ग ने दिखा दिया, कि वे केवल इंटरनेट पर चलनेवाली किसी नवोन्मेषशाली वेबसाइट के खिलंदड़ मालिक नहीं है, बल्कि एक विश्वव्यापी साम्राज्य के मालिक है जो अपनी जिम्मेदारी भली-भांति समझता है।
ज़करबर्ग ने माना है कि कैंब्रिज एनालिटिका मामले में फेसबुक से हुई बड़ी गलती हुई है। ज़ुकरबर्ग ने एक लिखित बयान में कहा है कि वह निजी डाटा की गोपनीयता की सुरक्षा और इसके दुरूपयोग को रोकने में सोशल नेटवर्क की विफलता के लिए जिम्मदारी स्वीकार करते हैं। उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया के सदस्यों के डाटा के दुरूपयोग को रोकने के लिए सोशल मीडिया नेटवर्क ने पर्याप्त प्रयास नहीं किया।
लंदन की कैंब्रिज एनॉलेटिका कंपनी पर कथित रूप से फेसबुक के सदस्यों के डाटा का दुरूपयोग करने का आरोप है।कैम्ब्रिज एनालिटिका की मूल कंपनी एससीएल और डॉ. अलेक्जेंद्र कोगान ने डेटा एकत्र करने की इस ऐप को विकसित किया था। व्यक्तिगत डेटा की चोरी होने के दावों के बाद ये घोटाला सामने आया । इसका दुरुपयोग अमेरिकी राष्ट्रपति अभियान और यूरोपीय संघ के जनमत संग्रह के परिणाम को प्रभावित करने के लिए किया गया था।
इस सिलसिले में ज़करबर्ग ने सीधे तौर पर कंपनी की गलती स्वीकार करते हुए कहा है, कि यूजर्स के डेटा की सुरक्षा करने की जिम्मेदारी हमारी है तथा ग्राहकों के डेटा की सुरक्षा करना उनकी जिम्मेदारी है। ज़करबर्ग ने कहा कि यह फ़ेसबुक और उन लोगों के साथ भी विश्वासघात है, जो अपनी जानकारियां हमारे साथ शेयर करते हैं।
अब ज़करबर्ग ने जो कुछ कहा है उससे सभी संतुष्ट हो यह ज़रुरी नहीं है। इसमें कोई शक नहीं, कि निजी डेटा की सुरक्षा एक अहम मुद्दा है। उपयोगकर्ताओं की व्यक्तिगत जानकारी के बदले में सामाजिक संपर्क प्रदान करनेवाला एक नया तंत्र हाल के वर्षों में उभरकर आया है। इसमें जो कंपनियां भागधारक है उनके छिपे इरादें समझना हर एक के बस की बात नहीं है। खासकर चुनावों के लिए मतदाताओं को लक्षित कर उनके मतों के रूझान को प्रभावित करना।
लेकिन यहां सवाल यह है, कि जिस हमाम में सब नंगे है उसमें केवल ज़करबर्ग को निशाना क्यों बनाया जा रहा है? क्या इसलिए कि फेसबुक के चलते ही अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत होने का सिद्धांत लिबरलों ने मन ही मन पक्का मान लिया है?
गुगल से लेकर एप्पल तक हर कंपनी आपके डाटा का उपयोग करने पर तुली है। यहां हर कोई आपके वर्तमान को कब्ज़े में लेकर भविष्य को आकार देने का प्रयास कर रहा है। गुगल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ऐरिक श्मिट ने सन् 2007 में फाइनेंशियल टाईम्स के साथ हुए एक इंटरव्यू में कहा था, कि “हमारा लक्ष्य गुगल उपयोगकर्ताओं को उस योग्य करना है कि वह ‘कल मुझे क्या करना चाहिए?’ और ‘मुझे कैसा काम करना चाहिए?’ जैसे प्रश्न पूछ सकें।” आज गुगल एसिस्टंट जैसे एप के जरिये यह लक्ष्य काफी हद तक साध्य किया जा चुका है।
श्मिट ने 2010 में वॉल स्ट्रीट जर्नल से एक अन्य साक्षात्कार में कहा था, “मुझे वास्तव में लगता है कि ज़्यादातर लोग यह नहीं चाहते कि गुगल उनके सवालों का जवाब दे, बल्कि वे चाहते हैं कि गुगल उन्हें यह बताए कि उन्हें आगे करना क्या है।” अब अगर उपयोगकर्ता की भूतकालीन और वर्तमानकालीन जानकारियां गुगल के पास होगी ही नहीं तो वह भविष्य की जानकारी क्या खाक देगा?
इसी ऐरिक श्मिट ने दिसम्बर 2010 में कहा था, कि “अगर आपके पास कुछ ऐसा है जो आप किसी और से जताना नहीं चाहते, तो शायद पहले स्थान में आपको ही वह नहीं करना चाहिए। अगर आपको वास्तविकता में वैसी गोपनियता चाहिए, तो फिर सच्चाई यह है कि खोज इंजन — गूगल सहित — कुछ समय के लिए वह जानकारी बनाए रखते हैं और यह महत्त्वपूर्ण है, उदाहरण के लिए, क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका में हम सब पैट्रियट एक्ट (देशभक्त अधिनियम) के अधीन हैं और यह सम्भव है कि वह सब जानकारी अधिकारियों को उपलब्ध करायी जा सकती है।”
निजता के अधिकारों के लढ़नेवाले संगठन प्राइवेसी इंटरनेशनल ने गूगल को “गोपनीयता का प्रतिपक्षी” की संज्ञा दी है। क्या कोई गुगल के बिना इंटरनेट का उपयोग करने की आज सोच सकता है?
यह साइबर दुनिया है, यहां आपका डाटा ही असली मुद्रा है। इस मुद्रा का आदानप्रदान किए बिना यह बाजार चल ही नहीं सकता। इसमें से काफी सारी मुद्रा चोरी से ही आती है, यह बात साइबर दुनिया में बाज़ार लगानेवाला हर शख्स जानता है। ज़करबर्ग की गलती इतनी है कि उसका सिक्का ज्यादा चलता था और उसकी चोरी पकड़ी गई।
राहुल गांधी और दलितों का ‘महाभोज’
मन्नू भंडारी की एक प्रसिद्ध कृति है ‘महाभोज’। किसी दलित व्यक्ति की मृत्यू, उस पर खड़ा उठनेवाला राजनैतिक बंवड़र और राजनैतिक दलों की गुलाटियां, इनका गजब का चित्रण भंडारीजी ने किया है। इस पुस्तक का सरसरी पठन करनेवाला भी हतप्रभ रह जाता है, कि किस तरह लेखक (लेखिकाएं) समय से आगे जाकर देख सकती है।
उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में स्थित सरोहा नामक गांव में विधान सभा की एक सीट के लिए चुनाव सर पर है। बिसेसर तथा बिसू नामक एक कार्यकर्ता दलित की हत्या होती है। बिसेसर हरिजन बस्ती के अपने लोगों न्याय दिलाने के लिए लढ़नेवाला व्यक्ति है। उसकी मौत के बाद उसका दोस्त बिंदेश्वरी उर्फ़ बिंदा उसके प्रतिरोध की विरासत आगे ले जाना चाहता है। लेकिन बिंदा को भी राजनीति और अपराध के चक्र में फांसकर जेल में डाला जाता है। उसके बाद एक राजनीति की बिसात पर बिसात बिछती जाती है और सत्ताधारी वर्ग, सत्ता प्रतिपक्ष, मीडिया और नौकरशाही जैसे कई खिलाड़ी जुड़ते जाते है। यह एक नंगी तस्वीर है, कि किस तरह शासन और तंत्र मिलकर दलितों, गरिबों को कुचलते है। उनका हक मारते है और उन्हें न्याय दिलाने के नाम पर अपनी जेबें भरते है।
जनवरी 2016 में हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या ने की, तबसे जो माहौल लिबरलों और मीडिया ने बनाया है वह बरबस ‘महाभोज’ की याद दिलाता है। सेकुलरिज्म का दम भरनेवाले दलों और वाम-झुकाववाली मीडिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी, कि भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में दलितों पर अत्याचार चरम पर है और यह एक पूर्णतः जातिवादी शासन है। ऐसे लोगों के लिए यह बताना उचित होगा, कि मन्नू भंडारीजी का यह उपन्यास सर्वप्रथम 1979 में रचित था। यह वर्ष वह है जब भाजपा का वर्चस्व छोड़ो, उसका अस्तित्व भी नहीं था। वह अपने पूर्ववर्ती चोले यानि जन संघ के रूप में भी नहीं थी। वह जनता पार्टी नामक एक कुनबे का हिस्सा थी जिसमें हर रंग के दल शामिल थे।
स्पष्ट है, कि दलितों पर अत्याचार हमारे देश का दुःखद वास्तव है। इसमें कांग्रेस और भाजपा के शासन में फर्क करना उचित नहीं होगा। बल्कि सच्चाई यह है, कि अगड़ी जातियों के वर्चस्व के कारण कई बार कांग्रेस ने दलित अत्याचार में बड़ी भूमिका निभाई है। जिस समय भंडारीजी का ‘महाभोज’ आया था, लगभग उसी समय महाराष्ट्र में दलित पैंथर का उदय हुआ था। राज्य के कई गांवों में दलितों पर हुए अत्याचार के खिलाफ एक उग्र विद्रोह के रूप में यह आंदोलन खड़ा हुआ था। पैंथर कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर दलित बस्तियों से भेंट करते और अत्याचारियों से दो हाथ करते।
इस सारे इतिहास से बेखबर होकर, या कहें कि उसकी तरफ आंखें मूंदकर, दलितों पर लगातार हो रहे अत्याचार के मुद्दे पर कांग्रेस ने देशव्यापी उपवास शुरू किया। उसमें जो फजीहत उसकी हुई है वह बिल्कुल स्वाभाविक है। जिसका अपना गिरेबां साफ नहीं वह और को क्या उपदेश देगा?
धरना और उपवास के पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एक रेस्तरां में खाना खाते हुए देखे गए। रेस्तरां में कांग्रेस नेताओं की छोले भटूरे खाती हुई तस्वीर भी वायरल हुई। कांग्रेस नेता अरविंदर सिंह लवली ने तो बाकायदा मान लिया, कि ये तस्वीरें सोमवार सुबह से पहले की है। उससे पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को लेकर भी कांग्रेस को शर्मिंदगी उठानी पड़ी। यह उपवास एक उपहास बनकर रह गया और इसके लिए सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस जिम्मेदार है।
कांग्रेस की इस नौटंकी ने अगर कुछ साबित किया है तो यह, कि वह अभी भी दिखावे की राजनीति औरलोगों की भावनाओं से खेलने में अभी भी नहीं हिचकिचाती है। राजनीतिक दल इस खेल में माहीर तो थे ही, वे अब बेशर्मी की हदें भी पार कर गए है। एससी-एसटी एक्ट पर जो फैसला दिया है वह उच्चतम न्यायालय ने दिया है। लेकिन राहुल गांधी इसका ठिकरा भाजपा के सर पर फोड़ रहे है।वैसे कांग्रेस यह भी बताएं, कि आखिर वह इतनी ही दलित हितैषी थी तो उसके 40 वर्षों के शासन के पश्चात् इस एससी-एसटी एक्ट को 1989 में बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ी?
तात्पर्य यह, कि कांग्रेस को सचमुच दलितों की चिंता होती तो इस ‘महाभोज’ का आयोजन नहीं होता।
यह तो बस कर्नाटक विधानसभा चुनाव की कार्यशाला और सन 2019 के आम चुनाव का अभ्यास है, बस!
महाभियोग – भयतंत्र का एक पैंतरा
भारत के प्रधान न्यायाधीश ( सीजेआई) दीपक मिश्रा पर महाभियोग चलाने की पहल सरासर पक्षपातपूर्ण राजनीति से प्रेरित है। यह एक अशुभ और अनुचित कदम है। इससे हासिल तो कुछ होनेवाला नहीं है, लेकिन एक संवैधानिक संस्था के सार्वजनिक रूतबे पर यह जरूर प्रहार करेगा। इस तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं पर टूटते विश्वास में ही इजाफा होगा। हमारे सार्वजनिक जीवन में मुठ्ठीभर संस्थाएं बची है जिनकी ओर अभी भी इज्जत से देखा जाता है और उसी इज्जत को तार-तार करने की यह शगल है। यह पहला मौका है, जब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग की तैयारी हो रही है। इससे पहले उच्च अदालतों के दो जजों के खिलाफ महाभियोग लाया गया था, लेकिन उसे पास नहीं कराया जा सका।
हमेशा की तरह इस ध्वंसकार्य का नेतृत्व कांग्रेस पार्टी ही कर रही है, हालांकि इसके लिए उसके पास कोई पुख्ता वजह नहीं है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार इस प्रस्ताव पर विपक्ष के कई दलों के नेताओं ने हस्ताक्षर किए हैं। इन दलों में राकांपा, वामदल, तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस भी शामिल हैं। कांग्रेस द्वारा लगाए गए आरोप न केवल बहुत महीन बल्कि बेजान भी है। कानून और नैतिकता की कसौटी पर वे एक पल भी नहीं ठहर सकते। चाहे सीजेआई ने विशेष न्यायाधीशों को मामले सौंपने के लिए अपनी विशेष शक्ति का इस्तेमाल किया हो या नहीं अथवा उनमें से कुछ की सुनवाई खुद करना पसंद किया हो, यह महाभियोग का कारण नहीं हो सकता।
अपने राजनीतिक भविष्य से चिंतित इन दलों का सबसे बड़ा ऐतराज यह है, कि न्या. मिश्रा राजनीतिक रूप से संवेदनशील एक मामले की सुनवाई खुद कर रहे है। इसलिए उनके विरोधियों का बौखलाना स्वाभाविक है। लेकिन इससे उनके आरोपों को वजन मिलने का कोई कारण नहीं है। बल्कि सीजेआई ने किसी विशेष मामले को अपने पसंद की किसी दूसरी पीठ पर निर्दिष्ट करने के बजाय खुद सुना इस तरह का आरोप लगाकर ये लोग इसी तर्क को बल देते है, कि वह दूसरा बेंच इनके द्वारा फिक्स था। एक मेडिकल कॉलेज से जुड़े मामले में राहत देने में मुख्य न्यायाधीश शामिल थे, इस आरोप में भी कोई दम नहीं है।
इस महाभियोग के प्रस्तावकों का संपूर्ण ध्यान सरकार को शर्मिंदा करने के लिए न्यायपालिका का उपयोग करने पर है, जबकि राजनीतिक किचड़-उछाल के लिए न्यायपालिका का उपयोग न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए सीजेआई प्रयास कर रहे है। वैसे न्या. मिश्रा का रिकार्ड शानदार रहा है। वे उस पीठ का हिस्सा थे जिसने 16 दिसंबर को हुए सामूहिक बलात्कार मामले में चार दोषियों को मौत की सजा की पुष्टि की थी और सिनेमा हॉलों में राष्ट्रगान को अनिवार्य बनाने का आदेश पारित किया था। न्यायमूर्ति मिश्रा वर्तमान में उस पीठ की अध्यक्षता कर रहे हैं जो कावेरी तथा कृष्णा नदी जल विवाद, बीसीसीआई सुधार और सहारा मामले समेत कई अन्य मामलों की सुनवाई कर रही है। न्यायमूर्ति मिश्रा 2 अक्तूबर 2018 तक अपने पद पर सेवाएं देनेवाले है और विपक्ष चाहता है, कि इस दौरान राम जन्मभूमि मामले की सुनवाई न हो। कपिल सिब्बल जैसे नेता तो भरी कोर्ट में कह चुके है, कि सन 2019 तक इस मामले को टाला जाएं। गलती से भी इस मामले का फैसला हिंदूओं के हक में हुआ, तो इसका फायदा भाजपा को होगा इसी ड़र से सभी सेकुलर पार्टियां सहमी हुई है।
स्पष्ट है, कि वे किसी भी तरह न्या. मिश्रा को इस मामले में आगे बढ़ने से रोकना चाहती है। महाभियोग का पैंतरा बस इसी भयतंत्र का एक हिस्सा है। बार काउंसिल के कुछ सदस्यों की कांग्रेसधर्मिता छिपी हुई नहीं है। सीजेआई मिश्रा अगर उनके इशारों पर चलने के लिए हामी भर देते, तो उन पर महाभियोग नहीं चलाया जाता। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने सरकारविरोधी रूख में एक सहभागी बनने हेतु सीजेआई को धमकाने के लिए संसद की उस शक्ति का दुरुपयोग किया जा रहा है जिसके तहत गलतियां करनेवाले न्यायाधीशों को सज़ा दी जाती है। उम्मीद है कि सीजेआई मिश्रा अपनी भूमिका पर कायम रहेंगे और इस तरह के ब्लैकमेल के आगे नहीं झुकेंगे।
वजूद बचाने की कवायद
कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी अपना वजूद बचाने के लिए ऐसे हाथ पर मार रही है जैसे कोई डूबनेवाला व्यक्ति पानी में मारता है। जब से नरेंद्र मोदी ने केंद्र में कमान संभाली है तबसे कांग्रेस के हाथ से एक के बाद एक राज्य फिसल चुके हैं और वह अच्छी तरह से जानती है, कि यह इकलौता बड़ा राज्य उसके पास बचा है। अब कि जब इस राज्य के विधानसभा चुनाव दस्तक दे रहे हैं तो विभिन्न गुटों की लामबंदी करने में मुख्यमंत्री सिद्दरामय्या कोई कसर नहीं छोड़ रहे है। उन्होंने इंदिरा कैंटीन जैसी योजनाओं के द्वारा गरीबों को अपनी ओर खींचने की कोशिश की। उसके बाद झंडे और धर्म के बहाने वोट बैंक बनाने की कोशिश की।
आज कर्नाटक में सिद्दरामय्या वही खेल खेल रहे है जो तमिलनाडु में कभी द्रविड़ पार्टियां खेला करती थी। वह राज्य के लोगों में दूसरे राज्यों के लोगों के लिए असंतोष पैदा कर रहे हैं जिसके लिए खासकर उत्तर भारतीय राज्यों को निशाना बनाया जा रहा है। इसकी शुरुआत मेट्रो रेलवे में हिंदी को थोपने के बहाने हुई। उसके बाद राज्य के अलग झंडे के नाम पर अलगाववाद पैदा किया गया। इन दोनों में मामलों में परिदृश्य ऐसे बनाया गया मानो केंद्र और राज्य सरकार आमने सामने आए हो। उसके बाद झंडे के नाम सनसनी बनाई गई और कन्नडभाषियों की भावनाओं को प्रज्वलित करने की कोशिश की गई।
कर्नाटक का अपना एक लाल और पीले रंग का ध्वज है लेकिन उसे आधिकारिक मान्यता नहीं है। राज्य में तमाम बड़े जनआयोजनों में इस झंडे का इस्तेमाल किया जाता है। इस झंडे को स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या अन्य सरकारी कार्यक्रमों में सरकार द्वारा नहीं फहराया जा सकता है। राज्य स्थापना दिवस जैसे अवसरों पर यह झंडा लहराया भी जाता है लेकिन उसे कानूनी मान्यता नहीं है। वैसे देश में जम्मू कश्मीर के अलावा अन्य किसी राज्य का अपना झंडा नहीं है।
सिद्धरामय्या यहीं पर नहीं रूके। उन्होंने लिंगायत पंथ को अलग धर्म के रूप में मान्यता देने की घोषणा की है। वीरशैव लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने की सिफारिश राज्य ने केंद्र के पास भेजी है। लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा देने से संबंधित नागमोहन दास कमेटी की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए कर्नाटक सरकार ने यह फैसला किया था। हालांकि इस आठ सदस्यीय समिति में एक भी लिंगायत व्यक्ति नहीं था।
राज्य मे लिंगायत समुदाय की जनसंख्या 17% है और यह वर्ग भारतीय जनता पार्टी का समर्थक माना जाता है। खासकर भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार बी. एस. येडियुरप्पा खुद लिंगायत है और इस समुदाय पर उनकी अच्छी खासी पकड़ है। विशेषकर उत्तरी कर्नाटक में भाजपा को इस समुदाय का समर्थन प्राप्त है।
सौभाग्य से किसी समुदाय विशेष को अलग धर्म का दर्जा देने के अधिकार राज्य के पास नहीं है। इसलिए मंजुरी के लिए यह प्रस्ताव केंद्र के पास भेजा गया है। इसमें खास बात यह है, कि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने यही मांग सन 2013 में नकार दी थी। यह स्पष्ट है, कि कांग्रेस किसी भी कीमत पर कर्नाटक का किला फतह करना चाहती है और उसके लिए हिंदू मतो में विभाजन करना उसकी प्राथमिकता है। केंद्र अगर इस मांग को मंजूर करता है तो सिद्दरामय्या इसे अपनी जीत करार दे दे सकते हैं और अगर न करेंतो उसे भाजपा का लिंगायत विरोध बता सकते हैं। यानी चित भी मेरी और पट भी मेरी।
कर्नाटक में कांग्रेस शासन का रिकॉर्ड कुछ खास प्रभावित करने वाला नहीं है। इसलिए जनता की भावनाओं को भड़का कर मतों की रोटी सेंकने का प्रयास कांग्रेस कर रही है। क्या उनके ये प्रयास रंग लाएंगे और कांग्रेस को फिर से सत्ता में लौटायेंगे, यह तो वक्त ही बताएगा।
मोदी, ट्रंप और पुतिन- जनमत के ठेकेदारों की एक और हार
रूस के चुनावों में अभूतपूर्व जीत हासिल कर व्लादिमीर पुतिन ने फिर से अपने नेतृत्व का लोहा मनवा लिया है। सारी दुनिया के जनमत के ठेकेदारों के गाल पर यह एक और जोरदार तमाचा है। अगर 2018 के रूसी चुनाव का नतीजा कुछ साबित करता है तो वह यह, कि कलमघिस्सुओं के मतों में और प्रत्यक्ष जनता में एक जोरदार खाई बन चुकी है जिसे पाटना अब नामुमकिन लगता है।
ठेकेदारों को अब तो मान लेना चाहिए, कि पुतिन की लोकप्रियता असली और प्रामाणिक है। पश्चिमी देशों और खासकर लिबरल कैम्प से इन चुनावों को कलंकित करने की चाहे जितनी भी कोशिश की गई हो, लेकिन इसको नकारना की यह लोगों की इच्छा है अपने आप को धोखा देना है।
दुनिया में कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था सही नहीं है, न रूस की, न ब्रिटेन की और न ही अमेरिका की। खासकर सन 2000 में जिस तरह जॉर्ज बुश ज्यू. विवादित पद्धति से चुनकर आए थे और जिस तरह पिछले एक वर्ष से मीडिया पंडित अपने ही अध्यक्ष पर संदेह व्यक्त कर रहे है, उसे देखते हुए तो यह कथन और भी वास्तव लगने लगता है।
पुतिन ने सन 2012 में 63.6% मत हासिल किए थे जबकि उस समय 65.25% मतदान हुआ था। इस बार 76.68% मतदान हुआ था जिसमें से पुतिन को 67.68% से अधिक मत मिलें। अपने लोगों पर पुतिन की इस हुकूमत को पश्चिमी परामर्शदाता पचा नहीं पाते। इनमें से कईयों ने तो उनकी तुलना तानाशाह जोसेफ स्टालिन से तक की है। भारत में भी कई पश्चिम-आधारित लेखकों ने इसी लकीर को आगे खिंचते हुए पुतिन की निंदा करने में कोई कोताही नहीं बरती।
वास्तव में पश्चिमी देशों को पेटदर्द होने का कारण यह है, कि सोवियत रूस के पतन के बाद उन्हें लगने लगा था कि रूस अब समाप्त हो गया। सन 1990 के दशक के दौरान रूस ने मुक्त बाजार प्रणाली अपनाई। उस प्रयोग में पटरी पर आने और सोवियत युग की अपनी ताकत को पुनः पाने के लिए रूस को कई दशक लगेंगे, ऐसी प्रत्याशा थी। हालांकि रूस ने बड़ी ही तेजी से अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त की। इस रिकवरी के लिए काफी हद तक जिम्मेदार व्यक्ति था व्लादिमीर पुतिन जिसने राष्ट्रवाद, व्यावहारिकता और प्रागतिकता के मार्ग पर चलते हुए राष्ट्र का गौरव लौटाया। परिणाम यह है, कि लोकप्रियता में पुतिन की बराबरी कोई नहीं कर सकता।
यहां याद रखना होगा, कि पुतिन के क्रेमलिन में आने से पहले रूस सामाजिक रूप से तितर-बितर हो गया था। करोड़ों लोग आर्थिक बिभिषिका से गुजर रहे थे। जबकि कुलीन वर्गों के कुछ लोग और उनके गुर्गे देश की संपत्ति लूटने में व्यस्त थे। अमेरिकी विद्वान और प्रसिद्ध रूस विशेषज्ञ स्टीफन एफ कोहेन ने इस स्थिति का वर्णन “शांतिपूर्ण समय में किसी प्रमुख राष्ट्र पर आई हुई सबसे खराब आर्थिक और सामाजिक विपत्ति” के रूप में किया था।
पुतिन ने न केवल यह लूट रोकी बल्कि पश्चिमी देशों की आंखों में आंख ड़ालने का माद्दा भी रूसी लोगों में तैयार किया। आज आलम यह है, कि अमेरिकीयों को यह डर लगता है, कि अमेरिकी अध्यक्ष भी रूस (या कहें पुतिन) चुनवाकर ला सकता है।
अतः यह समझना मुश्किल नहीं है, कि रूस में पुतिन की लोकप्रियता इतनी क्यों चढ़ती है। साथ ही पश्चिमी पत्रकारों, लेखकों और कार्यकर्ताओं में उनको लेकर इतनी घृणा क्यों है, यह समझना भी मुश्किल नहीं है। क्योंकि उनके नेतृत्व में रूस अपने पश्चिमी समकक्षों की तुलना में एक निम्न संस्कृति और निम्न शक्ति के रूप में जीने के लिए तैयार नहीं है।
भारत में नरेंद्र मोदी, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप और अब रूस में व्लादिमीर पुतिन। इन तीनों नेताओं में एक समानता यह है, कि मीडिया और विचारक कहे जानेवाले वर्ग का इन्हें कभी समर्थन नहीं मिला। लेकिन अपने लोगों पर पकड़ इन लोगों ने बार-बार साबित की है। ये अलग बात है, कि उनकी इस उपलब्धि को खुले दिल से दाद देने की दरियादिली भी वे नहीं दिखा सके है। यह ऐसा ही है, जैसे कोई व्यक्ति अंधेरे कमरे में बैठा हो और रोशनी को नकारे।
तीसरा मोर्चा नहीं, सिर्फ मोदी विरोधी मोर्चा
सारा देश जहां एक तरफ गुडी पाडवा, उगादि और युगादि मना रहे थे उसी दिन दो भाषण हुए जिन्होंने सुर्खियों में जगह पाई। ये दोनों राजनितिक भाषण थे और दोनों भाषणों के वक्ता ने केंद्र में आसीन मोदी सरकार को जमकर कोसा। पहले भाषण में कांग्रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष राहुल गांधी ने भारतीय जनता पार्टी को आड़े हाथों लिया, वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने भी मोदी पर निशाना साधा। ठाकरे ने तो यहां तक कहा, कि जिस तरह मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत की घोषणा की थी उसी तरह हमें भी मोदी मुक्त भारत का नारा देना चाहिए। इसके लिए सभी विपक्षी दलों को एकत्र आने की अपील भी की।
यद्यपि आज की घड़ी में राज ठाकरे की मनसे पार्टी की ताकत अधिक नहीं है – लोकसभा में उसका एक भी सदस्य नहीं है जबकि राज्य विधानसभा में ही केवल एक ही सदस्य है – फिर भी ठाकरे के वक्तव्य को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। इसका कारण यह है, कि उनके वक्तव्य से इस वक्त सभी विपक्षी दलों की छटपटाहट झलकती है।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर भाजपा के गढ़ गोरखपुर में भाजपा को धूल चटाई। साथ में फूलपूर की सीट भी वापस हथिया ली है। इससे विपक्षी दलों के हौसले बुलंद हो चुके है और गैर-भाजपाई दलों को लगने लगा है अगर वे मिलकर लड़े तो कमल का खिलना रोक सकते है।
एक जमाना था जब देश में कांग्रेस का राज था और भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी। इन दोनों दलों से एक हाथ दूरी पर रहनेवाले दल तीसरे मोर्चे के नाम से इकट्ठा होकर केंद्रीय सत्ता में अपने निवाले पाते थे। लेकिन चार साल पहले नरेंद्र मोदी नाम की आंधी ऐसे आई, कि सभी बने-बनाए समीकरण हाशिए पर चले गए और भाजपा की तूती बजने लगी। यहां तक, कि कभी एकछत्र राज चलानेवाली कांग्रेस भी अन्य खुदरा दलों के साथ एक कतार में आ गई। आलम यह थी, कि पिछले साल उत्तर प्रदेश में भाजपा ने जो भूतपूर्व सफलता प्राप्त की थी उसके बाद उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि विपक्षी दलों को 2019 को भूलकर 2024 की तैयारी करनी चाहिए। लेकिन उसके बाद भाजपा को गुजरात में जैसे-तैसे विजय पाने के लिए भी काफी मशक्कत करनी पड़ी और कुछ उपचुनावों में हार का सामना भी करना पड़ा।
इसके बाद विपक्षी दलों के मुरझाए हुए चेहरों पर फिर से उम्मीदों कि किरण जगने लगी और सभी गैर भाजपाई दलों ने हाथ मिलाने का कार्यक्रम शुरू किया। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने इसके लिए बाकायदा अगुवाई भी की। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों ने उसमें खुशी-खुशी सहभाग जताया। राव ने देश में एक गैर-भाजपाई और एक गैर-कांग्रेसी सरकार का विकल्प स्थापित करने के पक्ष में आवाज बुलंद की है। केसीआर के नाम से मशहूर राव ने हाल ही में राजनीति में गुणात्मक बदलाव की बात कही थी। चार मार्च को ममता बनर्जी ने राव से फोन पर बात कर उनके बयान पर पूर्ण सहमति जताई थी कि वह शासन में‘‘ गुणात्मक बदलाव” लाने के लिए राष्ट्रीय राजनीति में हिस्सा लेने के लिए तैयार है।
यह साफ है, कि गैर-कांग्रेसी दल भाजपा को कमजोर पड़ता हुआ देख रहे है और कमल के मुरझाने से खाली हुई जगह में खुद को स्थापित करने की जुगाड़ में लगे है। करीब-करीब 1990 के दशक की तरह! तीसरे मोर्चे को लगता है कि भाजपा 2014 की तरह अकेली की दम पर सरकार स्थापन करने की शक्ल में नहीं होगी और ऐसे में बाहरी दलों के मदद की जरूरत होगी। यह सारी मशक्कत उसी के लिए की जा रही है।
लेकिन अब यह साफ हो गया है कि अगर यह तीसरा मोर्चा बनता भी है तो वह कोई सिद्धांत आधारित या कार्यक्रम आधारित नहीं होगा। बल्कि उस का एकमात्र तत्व नरेंद्र मोदी का विरोध होगा। वर्ष 2019 के चुनाव 2014 की तरह दो दलीय ना होकर तीन कोणीय या बहु-कोणीय होने की संभावना बहुत अधिक है। इस बहु-कोणीय मुकाबले की धुरी मोदीविरोध ही होगी। कांग्रेस भी चाहती है, कि इसी धुरी पर एक मोर्चा बने और कांग्रेस भी चाहती है, कि सारे दल उसके इर्दगिर्द हो। हालांकि इस लढ़ाई का नेतृत्व किसी भी सूरत में कांग्रेस अपने युवराज को सौंपना चाहती है, उसे अन्य किसी का नेतृत्व मान्य नहीं है और बाकी दलों को यह हजम नहीं हो रहा है। ऐसे में अगर मोदीविरोधी दो मोर्चे बनते है तो प्रधानंत्री मोदी और भाजपा के लिए इससे बेहतर दृश्य कोई और नहीं होगा।
आखिर चंद्राबाबू की मंशा क्या है?
सरकार से निकलते हुए भी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में बने रहने की घोषणा करते हुए आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्राबाबू नायडू ने कहानी में ट्वीस्ट लाया है। भारतीय जनता पार्टी की एक दिशा में बढ़ती हुई यात्रा में उन्होंने एक मोड़ लाया है।
यह सर्वविदीत है, कि पिछले कई दिनों से भाजपा और तेलुगू देशम के बीच रिश्तों में खटास आई थी। एनडीए से बाहर निकलने की चंद्राबाबू गाहे-बगाहे कई बार घोषणा कर चुके थे। जनवरी में उन्होंने कहा था, ‘गठबंधन धर्म के कारण हम चुप हैं। यदि वे हमें नहीं चाहते तो हम नमस्कारम कह देंगे और अपनी राह पर निकल पड़ेंगे।’लेकिन उस पर पहल अभी तक नहीं हुई थी। बुधवार की रात 10 बजे के बाद उस पर अधिकारिक मुहर भी लग गई।
“मैंने इस मुद्दे पर केंद्र सरकार से 29 बार मुलाकात की लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया। जिस तरह से वे बात कर रहे हैं और कह रहे है, कि ‘हम इतना ही दे सकते है’ वह राज्य का अपमान है,” नायडू ने ताजा संवाददाता सम्मेलन में कहा।
हालांकि यह एक रटरटाया बयान है जिसका अभ्यास उनकी पार्टी वर्षों से कर रही है। तेलुगू आत्म-सम्मान का नारा तेदेपा के लिए एक सुपरीक्षित अस्त्र है जिसका प्रयोग कई बार किया गया है और वह भी सफलता के साथ। आखिर वह दिल्ली द्वारा आंध्र का अपमान किए जाने की दुहाई ही तो थी, जिसे देकर एन. टी. रामाराव हैद्राबाद की सत्ता पर आसीन हुए थे। इसी आघोष के साथ उन्होंने तेदेपा को जन्म दिया और सत्ता भी प्राप्त की। आज उसी जुमले को उछालकर चंद्राबाबू ने 1982-83 के चरित्र को दुहराने की कोशिश की है। फर्क इतना है, कि तब सत्ता में कांग्रेस थी और आज भाजपा है।
आंध्र प्रदेश और केंद्र के बीच विवाद का केवल एक कारण है और वह है एक शब्द : विशेष। इसका कारण है, कि आंध्र प्रदेश का विभाजन कर तेलंगाना बनाते समय लोकसभा में बहस के दौरान तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी, कि नए आंध्र को वित्तीय समस्या के उबरने के लिए विशेष श्रेणी का दर्जा (एससीएस) दिया जाएगा। मनमोहन सिंह ने यह घोषणा 5 वर्षों के लिए की थी, जबकि भाजपा ने सत्ता पाने की जद्दोजहद में 2014 में यह विशेष दर्जा एक दशक तक देने का वादा किया था। भाजपा के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने वाले तेलुगु देसम के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात क्या हो सकती थी?
मगर आंध्र प्रदेश को विशिष्ट राज्य का दर्जा देने में मोदी मदद करेंगे, इसकी उम्मीद लगाए बैठे चंद्राबाबू के हाथ निराशा ही लगी थी। दोनों दलों के बीच अंतर इतना बढ़ गया, कि आखिर नायडू ने कहा, कि वे अपमानित महसूस कर रहे है।
आज एससीएस की स्थिति यह है, कि राजकीय क्षितिज पर उसकी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है। भाजपा ने आंध्र को विशेष राज्य तो दूर, आम राज्यों की कतार में एक और राज्य से अधिक कुछ नहीं बनाया है। इसके लिए केंद्र ने 14 वें वित्त आयोग की सिफारिश को ढाल बनाया है जिसने एससीएस के खिलाफ सिफारिश की है। इसलिए विशेष वर्ग के नाम को छोड़कर उसके तहत मिलनेवाले सभी वित्तीय लाभ देने की बात केंद्र ने की है। इसका मतलब यह है, कि केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं का 90 प्रतिशत केंद्र द्वारा दिया जाएगा और राज्य द्वारा 10 प्रतिशत। आम तौर पर कुछ परियोजनाओं के खर्च का 60 प्रतिशत हिस्सा केंद्र द्वारा और 40 प्रतिशत राज्य द्वारा दिया जाता है।
केंद्र की इस पेशकश को चंद्राबाबू ने हामी भरी थी, क्योंकि इसके अलावा उनके पास कोई चारा भी नहीं था। वास्तविकता यह है, कि चंद्राबाबू मोदी से ऐसा कुछ उगलवा नहीं पा रहे थे जैसा 1998-2004 के दौरान वे अटलबिहारी वाजपेयी से उगलवाते थे।
अब सवाल यह है, कि क्या तेदेपा का सरकार से बाहर निकलने से आंध्र का कुछ भला होगा? इसका उत्तर है, नहीं। खासकर तब अगर भाजपा 2019 में सत्ता में लौट आ जाए। दूसरी तरफ भाजपा और वाईएसआर कांग्रेस नेता जगनमोहन रेड्डी के बीच भी नजदीकियां बढ़ रही है। इसके कारण भी तेदेपा की भौंहें तन गई है। जगनमोहन रेड्डी की पिछले दिनों भाजपा के वरिष्ठ नेताओं से मुलाकात ने इस बात को बल ही दिया है। जगनमोहन ने पहले भी कहा था और अब भी कहते है, कि अगर भाजपा आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा देती है तो वो उसका समर्थन करेंगे। इसी बीच केंद्रीय जांच एजेंसियों के कई केस जगन पर चल रहे हैं। इन पचड़ों से खुद को बचाए रखने के लिए जगन भाजपा से हाथ मिलान चाहते हैं।
इसलिए भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोलकर चंद्राबाबू शहीद बनना चाहते है। यह चंद्राबाबू का एक हथकंडा है जो एक तरह से भाजपा के खिलाफ नूरा कुश्ती है। राज्य में अपनी साख बचाने के लिए खेली गई यह चाल है। भाजपा को खलनायक बनाकर वे नायक बनना चाहते है जिससे आंध्र की सत्ता में उनका पुनरागमन सुकर हो। ऐसा हुआ, तो भाजपा और तेदेपा फिर से एक थाली में खाते हुए दिख सकते है।