नाकारों के नकारों पर सवार कांग्रेस

कहते हैं, कि जो लोग अपनी गलती से सीखते है वे साधारण होते है। जो दूसरों की गलतियों से सीखते है वे बुद्धिमान होते है लेकिन जो ना अपनी और ना दूसरों की गलतियों से सीखते है वे मूर्ख होते है। कांग्रेस पार्टी का हाल कुछ इस तीसरे वर्ग के लोगों जैसा है। अपनी पुरानी शिकस्तों और वर्तमान राजनीतिक सूझबूझ से वह कुछ भी सीखने के लिए तैयार नहीं है।
एक तरफ कांग्रेस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने की बात करती है जबकि अपने इस लक्ष्य के लिए दूसरी पार्टियों को साथ लेने के लिए वह तैयार नहीं है! सारे राजनीतिक विश्लेषक एक सूर में यह कहते हैं, कि कांग्रेस का अहंकार उसको डुबानेवाला है। राहुल गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी में बिठाने के लिए कांग्रेस के कार्यकर्ता इतने लालायित है कि उसके लिए पूरी तैयारी करने की भी तैयारी में नहीं दिखा रहे। जंग में जीतने का उनको इतना विश्वास है कि जंग की तैयारी करना वे ज़रूरी नहीं समझते।

शुक्रवार को कांग्रेस ने कहा कि पश्चिम बंगाल सहित जिन राज्यों में गठबंधन को लेकर प्रयास हो रहे हैं, वहां किसी तरह की समस्या नहीं है। पार्टी प्रवक्ता पवन खेड़ा ने यह भी कहा, कि विपक्षी दलों का मकसद प्रधानमंत्री मोदी को हटाना नहीं बल्कि देश को बचाना है।

उन्होंने बताया कि, ‘‘हमारा मकसद मोदी जी को हटाना नहीं है। हमारा मकसद देश को बचाना है, संस्थाओं को बचाना है। सबकी स्वतंत्रता को बचाना है। जिस व्यक्ति विशेष को लेकर भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव को व्यक्तिवाद का चुनाव बनाना चाहती है, उस व्यक्ति में ही कोई विशेषता लोगों को नहीं दिखती, तो वो कैसा व्यक्ति विशेष है? ’’

खेड़ा ने कहा, ‘‘ये बड़ा स्पष्ट है कि जहां भी हमारी गठबंधन की बात चल रही है, जिन राज्यों में चल रही है, कहीं कोई समस्या नहीं है, बातचीत चल रही है, बातचीत में जितना समय लगता है, उतना लगता है।’’

इस पूरे कथन को पढ़ने के बाद दो बातें पूरी तरह से समझ आती है। एक तो कांग्रेस में नाकारे नेताओं की भरमार है जिनका अपना कोई जनाधार नहीं है। दूसरी बात यह, की ज़मीनी सच्चाई स्वीकार करने की मानसिकता इन नेताओं में अभी भी नहीं है। अगर भाजपा का प्रचार व्यक्ति विशेष (नरेंद्र मोदी) को केंद्र में रखकर है तो कांग्रेस कहां लोकतांत्रिक परंपराओं का निर्वाह कर रही है। बल्कि वहां तो पार्टी का पूरा खाका ही एक परिवार विशेष पर खड़ा है। मोदी ने 12 वर्ष गुजरात में और पांच वर्ष केंद्र में सरकार चलाते हुए अपना सिक्का चलाया है। तब जाकर भाजपा ने उन्हें अपना नेता बनाया है। राहुल गांधी ने अब तक किया क्या है जिसके बूते कांग्रेस उन्हें अपना मसीहा मानती है?

रही बात गठबंधन की, तो राजनीति पर थोड़ी सी भी नजर रखने वाले किसी भी निरीक्षक से पूछिए। वह आपको बताएगा कि कांग्रेस का गठबंधन का हर प्रयास विफल रहा है। पिछले वर्ष मई महीने में कर्नाटक में अधिक सीटें मिलने के बाद भी कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष जनता दल को मुख्यमंत्री पद देकर उदारता दिखाई थी। देश में मोदीविरोधी लगभग हर नेता उस अवसर पर उपस्थित था और तथाकथित सेकुलर दलों के नेताओं द्वारा उठाए गए हाथों की वह तस्वीर अभी भी लोगों के मन से हटी नहीं है। हालांकि उस तस्वीर से उभरी हुई आशाएं एक वर्ष के भीतर ही धूमिल हो चुकी है क्योंकि उस वक्त कांग्रेस ने जो सूझबूझ दिखाई थी आज उसका नामोनिशान तक दिखाई नहीं देता। इसी का कारण है, कि हर नेता, हर कुनबा, हर खेमा और हर पार्टी कांग्रेस से खफा है।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस से गठबंधन करने में बिल्कुल रुचि नहीं रखती। बल्कि उन्होंने तो राज्य में सभी चुनाव क्षेत्रों के लिए अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं। दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल गठबंधन के लिए कांग्रेस से गुहार कर कर के थक गए लेकिन कांग्रेस ने उन्हें घास नहीं डाली। बिहार में अगर कांग्रेस राजद से गठबंधन कर भी लेती है तो भी उसका कितना असर होगा यह भगवान ही जाने क्योंकि राजद प्रमुख लालू यादव इस वक्त जेल में है। कर्नाटक में जिस गाजेबाजे के साथ कांग्रेस ने जेडीएस से गठबंधन किया था वह उत्साह नदारद है क्योंकि वहां जेडीएस अपने कुनबे में लगी आग को बुझाने में व्यस्त है। देवेगौडा परिवार अंदरूनी झगड़ों से परेशान है। ऊपर से पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की महत्वाकांक्षा इस गठबंधन को कमजोर करने में लगी हुई है। आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने कांग्रेस से गठबंधन कर के तेलंगाना के विधानसभा चुनाव लड़े थे लेकिन वहां इस गठबंधन को मुंह की खानी पड़ी जिसके कारण नायडू भी कांग्रेस से नजदीकी बढ़ाने में ज्यादा रस लेते हुए नहीं दिखते। हालांकि तमिलनाडु में डीएमके के साथ हाथ मिलाने में कांग्रेस को थोड़ी बहुत सफलता मिली है और इसी सफलता पर पार्टी इतरा रही है।

एक पूरी पार्टी की पार्टी एक ही परिवार पर निर्भर हो और जनाधार रखने वाले नेताओं का अकाल हो तो वास्तविकता को नकारनेवाले नेताओं की तूती तो बोलेगी ही। ऐसे नकारों पर सवार कांग्रेस की नैया डूबना तय है।

लाचार केजरीवाल और ठगे हुए समर्थक

दिल्ली में आगामी लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) के बीच संभाव्य गठबंधन पर पूर्णविराम लग चुका है। दिल्ली प्रदेश कांग्रेस ने राज्य में सातों लोकसभा सीटों के लिए आप के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन होने की संभावना मंगलवार को नकार दी। इन सातों सीटों पर भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में विजय प्राप्त की थी। ऐसे में कांग्रेस और आप में मतों का विभाजन हुआ तो भाजपा को इस बार भी लाभ मिल सकता है। एक हिंदी टेलीविजन चैनल द्वारा सोमवार को किए गए सर्वेक्षण में बालाकोट के हवाई हमलों के बाद विशेष रूप से भाजपा की स्थिति मजबूत होने की पुष्टि की गई।

मंगलवार को दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष शीला दीक्षित के साथ-साथ कांग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेताओं की बैठक पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ हुई। इस अवसर पर स्थानीय नेताओं ने आप से गठबंधन न करने का आग्रह किया और राहुल गांधी ने भी इससे सहमति जताई। श्रीमती दीक्षित ने कहा, कि ‘हमने आम सहमति से निर्णय किया, कि आम आदमी पार्टी से गठबंधन नहीं करनी है और अपने बल पर चुनाव लड़ने है।’ अहमद पटेल और पी. सी. चाको जैसे कुछ नेता आप से गठजोड़ करने के पक्ष में थे, लेकिन कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने इसका जोरदार विरोध किया। पंजाब कांग्रेस ने भी आप से किसी भी प्रकार गठबंधन करने से मनाही की। आप ने 2014 के चुनाव में पंजाब में 4 लोकसभा सीटों पर विजय प्राप्त की थी।

कांग्रेस के इस ताजा निर्णय से दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप के प्रमुख अरविंद केजरीवाल तिलमिला गए। उन्होंने सीधे आरोप किया, कि कांग्रेस भाजपा की मदद कर रही है। उन्होंने ट्वीट किया, कि ‘सारा देश मोदी और शहा को हराने के लिए एकत्र आया है, ऐसे में कांग्रेस भाजपाविरोधी मतों का विभाजन कर भाजपा की सहायता कर रही है।’ इतना ही नहीं, उन्होंने संदेह जताया, कि कांग्रेस ने भाजपा से कोई गुप्त समझोता किया है।

केजरीवाल इस गठबंधन के लिए अत्यंत लालायित थे। इससे पूर्व भी उन्होंने गुहार लगाई थी, कि मैं कांग्रेस के दरवाजे पर खड़े रहकर थक चुका हूं लेकिन कोई हमारी सुध नहीं लेता। केवल दो सप्ताह पूर्व 16वीं लोकसभा के अंतिम सत्र के अंतिम दिन विरोधी दलों द्वारा आयोजित सभा में भी केजरीवाल ने हिस्सा लिया था। इस सभा की मेजबानी ही आप के पास थी। वरिष्ठ कांग्रेस नेता आनंद शर्मा का केजरीवाल ने मंच पर स्वागत भी किया था। आज वही केजरीवाल ‘अच्छा सिला दिया मेरे प्यार का’ का राग आलापते हुए कांग्रेस को कोस रहे है।

एक समय था जब इसी कांग्रेस के खिलाफ जंग छेड़कर केजरीवाल ने देशवासियों का ध्यान आकर्षित किया था। कांग्रेस, खासकर शीला दीक्षित, भ्रष्टाचार की प्रतीक है यह बात उन्होंने पुरी शिद्दत से रखी थी। भ्रष्टाचार उन्मूलन और स्वच्छ राजनीति ही हमारा कार्यक्रम है, यह कहते हुए उन्होंने दिल्ली की सत्ता हथियाई थी। आज उसी कांग्रेस से नजदीकियां बढ़ाने के लिए केजरीवाल जद्दोजहद करते हुए दिखाई दे रहे है। राजनीति का चरित्र बदलने की भाषा करनेवाले नेता का चरित्र ही बदलते हुए देश देख रहा है। एक नायाब अवसरवादी के तौर पर केजरीवाल सामने आ रहे है। एक ऐसा नेता जो सत्ता के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकता है।

वास्तव में राजनीति सत्ता के लिए ही होती है। कम से कम आज के जमाने में तो यही देखने को मिलता है। लेकिन केजरीवाल ने हमेशा से ऐसा दिखाया है, कि जैसे भ्रष्टाचार विरोध की मशाल वे हाथ में थामे हुए चल रहे है। बढ़ी शातिरता से बनाई गई तस्वीर में अब दरारें आने लगी है।

केजरीवाल के पलटाव से उनके समर्थकों में खलबली मचना स्वाभाविक ही था। कुमार विश्वास जैसे उनके समर्थकों ने इस असंतोष को मार्ग दिखाया है। उन्होंने ट्विटर पर केजरीवाल पर निशाना साधते हुए उन्हें भिखारी की मिसाल दी।

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वैसे भी अन्ना हजारे को आगे करते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में शामिल अधिकांश सहयोगी केजरीवाल को छोड़कर जा चुके है। केजरीवाल द्वारा पार्टी में तानाशाही चलाने का आरोप करने के बाद प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को अपमानजनक ढंग से पार्टी की कार्यकारिणी से निकाल दिया गया। उसके बाद एडमिरल एल. रामदास को पार्टी के अंतर्गत लोकपाल पद से त्वरित प्रभाव से बर्खास्त किया गया। पूर्व पत्रकार आशुतोष और कपिल मिश्रा कागजी तौर पर आज भी पार्टी में है लेकिन उनका अधिकांश समय नेतृत्व की आलोचना करने में बीतता है। विनोदकुमार बिन्नी, शाझिया इल्मी, जी. आर. गोपीनाथ, एस. पी. उदयकुमार, अशोक अग्रवाल और अंजली दमानिया जैसे सूरमा आज पार्टी से दूर है, जबकि किरण बेदी ने सीधे भाजपा का संग साधकर पुदुच्चेरी के राज्यपाल का पद प्राप्त किया।

यह तो बात हुई प्रमुख नेताओ की, फिर कार्यकर्ताओं के क्या हाल होंगे ? दूसके स्वतंत्रता संग्राम का नाम देकर दिल्ली के जंतर मंतर पर आंदोलन में उतरनेवाली एक पूरी पिढ़ी अब ठगा हुआ सा महसूस कर रही है। स्वतंत्रता संग्राम से नाता होने का दम भरनेवाली कांग्रेस को भ्रष्ट होने में चार दशक लगे, पार्टी विथ डिफरन्स कहलानेवाली भाजपा को सत्ताकांक्षी होने में तीन दशक लगे। लेकिन स्वच्छ चारित्र्य और शुचिता की हामी भरनेवाली आप का पतन होने में एक दशक से भी कम समय लगा। केवल केवळ आठ वर्षों में आप का सफर जिस पार्टी को बुरा-भला कहते हुआ उसका जन्म हुआ उसी पार्टी की ओर हो रहा है। इसे लोकतंत्र का खेल कहें या विडंबना?

When Political Motives Turn Shameless….

The anxiety and political motives of West Bengal Chief Minister Mamata Banerjee are turning into shamelessness with every passing day. Her brazenness has reached such a state that she is openly threatening the government and the nation of a possible civil war. The lady who was once hailed as a fiery leader has metamorphosed into a militant leader.

Banerjee on Tuesday alleged that the National Registrar of Citizens (NRC) exercise in Assam was done with a “political motive” to divide people and warned that “it would lead to bloodbath and a civil war in the country.”

As has become her habit for quite a time, she attacked the central government and BJP also saying that the saffron party was trying to divide the country and asserted this will not be tolerated.
“The NRC is being done with a political motive. We will not let this happen. They (BJP) are trying to divide the people. The situation cannot be tolerated. There will be a civil war, blood bath in the country,” Banerjee told a conclave.

SC-Driven Exercise

The massive Supreme Court-monitored exercise to identify genuine Indian nationals living in Assam excluded over 4 million people from the final draft list. The issue rocked both house of Parliament after which Home Minister Rajnath Singh appealed to the opposition not to politicize the sensitive matter as the list has been published on the directives of the SC and the Centre had “no role” in it.

He asserted that no “coercive” action would be taken against those whose names were excluded from the NRC draft list.

The truth of the matter is that TMC, like Congress and left parties, has nurtured a culture of illegal immigrants and infiltrators. These parties owe their existence and success to this dubious voter base. They can hardly afford to alienate them. That is why Banerjee and her ilk make a hue and cry over the issue. Joining them with chorus is Congress Party. Yes, that same old party which has lately habituated itself to play second fiddle to strong regional forces.

It is a hard-established fact that India is suffering from illegal immigrants for decades. The problem dates as back as Nation’s independence. Even past prime ministers like Indira Gandhi and Rajiv Gandhi have appreciated this fact and vowed to eradicate this menace. Security experts have pointed out a number of times the risks involved in allowing infiltrators a free access to the country. Besides eating up a sizable chunk of resources, these infiltrators have caused huge population explosion. Rather, this inhibited infiltration is said to be one of the main reason of India’s population after 1980s and 90s. This was also the time when the successive central governments were weak and the country witnessed a number of terrorist attacks.

It is true that the first waves of illegal immigrants came to India owing to their poverty in search of livelihood and security, due to extreme poverty and unemployment. . It is also true that the first settlers were, if we may say so, consisted of Muslim as well as Rhodium Libreus. However, once it was seen that India is a very open country that welcomed immigrants from every side, the trickle soon turn into a stream. And soon, the camel enjoyed hospitality of the tent while his owner had to live in the open ground.

With central governments showing little interest to find a solution to the infiltration problem and state governments willing partner in the crime, it ultimately became one of the biggest security concerns for India. Many of the illegal immigrants were found involved in nefarious activities like human trafficking, counterfeit currency and drug trade. Gradually, the professed secular parties turned these groups into captive vote banks. They not only harbored these groups but also actively encouraged them to flourish. It is no secret that these secular parties encouraged illegal migration and encouraged them to get citizenship of India. Many leaders of these parties procured jobs, even government jobs, to them. This was the classic modus operandi in Kashmir, Assam and West Bengal.

Disappearing Vote Banks

It is this vote bank that Mamata Banerjee is seeing being eroded with a single stroke of national register of citizenship (NRC). All the noise that she is making is because of this. Mamata is terrified even with the thought of deporting illegal migrants as they form the core of her ‘constituency’. She became hysterical the moment Assam government announced the NRC list in which 4 million people were identified as aliens. Even assuming that this list will be modified and a half of them are retained, yet Congress, TMC and Left will lose 2 million voters.

This is why they are spewing venom on government accusing the latter of dividing the country. This same gang opposed deporting Rohingya Muslims even after conclusively proving that they had terrorist affiliations.

Notwithstanding these theatrics, the citizens of this country vehemently support the move regardless of the fact that it was carried out on Supreme Court’s order and not by the government itself. This long pending and much needed development will have serious repercussions. Most importantly, it has bared open the groups that think in national interest and those otherwise.

‘एनआरसी’वर तडफड? नव्हे, 2019ची बेगमी!

लोकसभेची निवडणूक जसजशी जवळ येईल, तसतसे ‘लोकशाहीवादी’ पक्षांचे अनेक रंग उडून मूळ स्वरूप उघडे पडत जाणार आहे. प्रत्येक मुद्द्याला राजकीय रंग देऊन स्वतःलाच चिखलात अडकविण्याचे प्रयत्न हे पक्ष करणार आहेत. नॅशनल रजिस्टर ऑफ सिटीझन्सच्या मुद्द्यावर हे पक्ष करत असलेला थयथयाट हा त्या भविष्याची एक चुणूक आहे.

आसामच्या नागरिकांची गणती करण्यासाठी तयार केलेल्या नॅशनल रजिस्टर ऑफ सिटीझन्स (एनआरसी) याच्या मसुद्याचा दुसरा भाग बाहेर पडला आणि लिबरल डोंबाऱ्यांनी आपला जुनाच खेळ सुरू केला. या रजिस्टरमध्ये आसामच्या रहिवाशांची नावे आहेत आणि हे रजिस्टर काही कालावधीनंतर अपडेट करण्यात येते. याचाच अर्थ त्यात सुधारणा करता येऊ शकते.

आताच्या ताज्या रजिस्टरचे काम 2014 मध्ये सुरू झाले आणि ते 2016 पर्यंत सुरू होते. या दरम्यान एकूण 3.29 कोटी लोकांनी नागरिकत्वासाठी अर्ज केला होता. आपण आसामचे रहिवासी आहोत असा त्यांचा दावा होता. या वर्षीच्या जानेवारीत या रजिस्टरचा पहिला मसुदा बाहेर पडला होता. त्यात 1.90 कोटी लोकांना आसामचे रहिवासी म्हणून मान्यता मिळाली होती. त्याही वेळी मोठा गदारोळ उठला होता. मात्र अजून अंतीम यादी बाहेर यायची असून पूर्ण छाननी झाल्यानंतर यादी बाहेर येईल, असे सरकारने तेव्हा सांगितले होते. सोमवारी या रजिस्टरचा दुसरा भाग बाहेर पडला. त्यातील माहितीनुसार 40 लाख लोकांचे नागरिकत्व हरविण्याची शक्यता निर्माण झाली आहे.

अन् याच कारणावरून विरोधी शिबिरांमध्ये खळखळ सुरू झाली आहे. ज्या चाळीस लाख लोकांची नावे या यादीतून गळाली आहेत, त्यांनी यासंदर्भात आवाज काढणे समजू शकता येईल. परंतु चहापेक्षा किटली गरम या म्हणीला अनुसरून या संशयास्पद नागरिकांऐवजी विरोधी पक्षांनाच जास्त कंठ फुटला आहे. नेहमीप्रमाणे या आक्रस्ताळलीलेचे नेतृत्व पश्चिम बंगालचे मुख्यमंत्री ममता बॅनर्जी करत आहेत. त्या तर पहिली यादी बाहेर पडली तेव्हापासून अस्वस्थ आहेत. त्यांच्या पक्षाने या विषयावर लोकसभेत स्थगन प्रस्तावाचीही नोटीसही दिली होती. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन यांनी ती स्वीकारला नाही हा भाग अलाहिदा. त्या नकारावरील ममतांचा जळफळाट शमत नाही तोच आता हा दुसरा आघात झाला आहे. आपले हक्काचे चाळीस लाख मतदार एका फटक्यात हरविण्याच्या भीतीने त्यांच्या तोंडचे पाणी पळाले आहे. एखाद्या व्यक्तीने निगुतीने आपले डबोले एखाद्या झाडाखाली पुरून ठेवावे आणि महापुरात त्या झाडासकट डबोलेही वाहून जावे, अशी त्यांची गत झाली आहे.

वास्तविक हा प्रश्न आसामचा. आसाम आणि बंगाल हे शेजारी राज्य आहेत. आसाममध्ये मोठ्या संख्येने बंगाली लोक राहतात आणि उलट बंगालमध्ये मोठ्या संख्येने सामील लोक राहतात, ही गोष्ट खरी आहे. पण त्यामुळे आसामच्या विषयांमध्ये नाक खुपसण्याचे ममताना काही कारण नाही. परंतु या विषयावर बंगाली कार्ड खेळण्याची चाल ममतांनी खेळली आहे. एनआरसीच्या विषयात केंद्र सरकारने ममतांना विश्वासात घेतले नाही, असे त्यांच्या पक्षाचे खासदार डेरेक ओब्रायन म्हणाले. आता हा एनआरसीचा विषय सर्वोच्च न्यायालयाच्या आदेशावरून सुरू झालेला, त्याची व्याप्ती आसाममधली आणि त्यासाठीची सर्व रसद केंद्र सरकारने दिलेली. यात ममता बॅनर्जी यांची भूमिका कुठून येते, हे त्यांचे त्यांनाच माहीत.

“भाजप सरकारने ज्या चाळीस लाख रहिवाशांची नावे वगळली आहेत त्यातील बहुतांश बंगाली आणि बिहारी आहेत. त्यामुळे हे नागरिक स्वतःच्याच देशात निराश्रित बनले आहेत,” असा कांगावा ममतांनी केला आहे. तसेच आपली नेहमीची तबकडी वाजवत, हिंदू आणि मुस्लिमांमध्ये भेदभाव होत असल्याचाही राग आळवला आहे. बंगालमध्ये कॉंग्रेस, डावे पक्ष आणि तृणमूल या सर्वांची रोजीरोटी बांगलादेशी घुसखोरांच्या जीवावर चालू आहे. त्यामुळे त्यांनीही ममतांच्या सुरात सूर मिसळला.

अर्थात आता आलेली यादीही शेवटची नाही. अंतिम यादी डिसेंबर महिन्यात येणार आहे. परंतु 2018 च्या क्षितिजावर 2019 च्या निवडणुका दिसत असताना तेवढा धीर धरण्याची बुद्धी विरोधकांना कशी होईल? ‘मुस्लिम विरोधी भाजप’ या ठरलेल्या संकल्पनेनुसार तोंड वाजविण्यासाठी विरोधकांना सुंदर कोलीत मिळाले आहे. या रजिस्टरचे काम सर्वोच्च न्यायालयाच्या आदेशानुसार सुरू झाले, त्यावर देखरेख सर्वोच्च न्यायालयाची होती अशा तपशीलांकडे एकतर सेक्युलर टोळ्यांना लक्ष द्यायचे नाही किंवा दिसले तरी त्यांना ते पाहायचे नाही.

देशात आसाम हे एकमेव असे राज्य आहे जेथे राज्याच्या मूळ रहिवाशांची माहिती एकत्र ठेवण्यासाठी राष्ट्रीय नोंदणी दस्तावेज आहे. याचे कारण म्हणजे इंग्रजांच्या काळापासून आसाममध्ये मोठ्या प्रमाणावर घुसखोरी चालू आहे. आसाममध्ये चहाचे मळे सुरू केले ते इंग्रजांनी. या मळ्यांमध्ये काम करण्यासाठी बाहेरून मोठ्या प्रमाणावर मजूर आणण्यात आले. हे मजूर नंतर आसाममध्ये स्थायिक झाले. त्यामुळे स्थानिक कोण आणि उपरा कोण हे कळणेही अशक्य झाले. त्यानंतर देशाची फाळणी झाल्यानंतर निर्वासितांचे लोंढे आसाममध्ये येऊ लागले. या बाहेरच्या लोकांना स्थानिकांकडून विरोध सुरू झाला. तेव्हा सरकारने आसामचे निवासी निश्चित करण्यासाठी रजिस्टर तयार करण्याचा निर्णय घेतला. अशा प्रकारचे नॅशनल रजिस्टर ऑफ सिटीझन्स 1951 मध्ये तयार करण्यात आले. त्यात आसामच्या प्रत्येक गावातील घर, संपत्ती आणि लोकांचे तपशील होते.

बांगलादेश निर्मिती आंदोलनाच्या काळात असंख्य घुसखोर आसाममध्ये शिरू लागले. त्यांच्या विरोधात 1970 आणि 1980च्या दशकात मोठे आंदोलन उभे राहिले. प्रफुल्लकुमार महंत हे त्या आंदोलनाचे एक प्रमुख नेते. आसाम गण परिषद या पक्षाची स्थापना या आंदोलनातून झाली. राजीव गांधी पंतप्रधान असताना त्यांनी या आंदोलकांशी जो करार केला त्यावेळी या रजिस्टरमध्ये सुधारणा करण्याची मागणीही त्यांनी मंजूर केली होती. त्यानुसार 24 मार्च 1971 च्या मध्यरात्री ज्यांची नावे मतदार यादीत होती त्यांना आसामचे रहिवासी म्हणून मान्यता मिळाली. त्यामुळे या तारखेनंतर आलेले सर्व लोक आपोआप घुसखोर ठरले.

नरेंद्र मोदी यांनी प्रचार काळात बांगलादेशी घुसखोरांचा मुद्दा उचलला असला तरी त्या पूर्वीपासून हा मुद्दा चर्चेत होता. त्यावर खटलेबाजी सुद्धा सुरू होती. सर्वोच्च न्यायालयाने डिसेंबर 2014 मध्ये यासंदर्भात आदेश देऊन 30 जून 2018 पर्यंत हे रजिस्टर अद्ययावत करण्यास सांगितले होते. त्याचीच अंमलबजावणी आता झाली आहे.

आता भलेही चाळीस लाख मतदार पूर्णपणे वगळण्यात येणार नाहीत. डिसेंबरमधील अंतिम यादी येईपर्यंत त्यातील अनेकांची नावे परत येतील. परंतु यातील 50 टक्के नावे गडप झाली तरी सेक्युलरांची वीस लाख मते गेल्यात जमा आहेत. हा त्यांचा जी तडफड चालू आहे त्याचे कारण हे आहे. घुसखोरांच्या मतांवर पोसलेल्या या पक्षाची जणू अस्तित्वासाठी लढाई चालू हे. भाजप या चारचौघांसारख्या सामान्य राजकीय पक्षाला एक हिंदुत्ववादी पक्ष करण्यात सेक्युलर पक्षांच्या अशा अतिरेकी कलकलाटाचा मोठा वाटा आहे. आताही त्या पक्षाच्या 2019 च्या मतांची बेगमीच या नाट्यातून घडणार आहे, आणखी काही नाही.

नैया को डगमगा न देने की चुनौती

अविश्वास प्रस्ताव से पहले विरोधी खेमे में उत्साह की ऐसी बयार थी, कि मानो नरेंद्र मोदी और भाजपा का सफाया बस एक कदम दूरी पर है। सभी विरोधी दलों ने ऐसा माहौल बनाया था, कि सरकार के नाकों चने चबाने का समय आ गया। अपनी एकजुटता का स्वांग बनाने से लेकर बेसिर-पैर के आरोपों की झड़ी लगाने तक हर दल ने एक भीषण संघर्ष के लिए नगाड़े बजाने शुरू किए थे। लेकिन शुक्रवार को लोकसभा में जब अविश्वास प्रस्ताव आया और सभी नेताओं के भाषणों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जवाब देने के लिए उठे, तो यह सारा स्वांग फुर्र हो गया।

इस प्रस्ताव का नतीजा क्या होनेवाला है यह तो हर कोई जानता था, लेकिन जिस तरह वह धड़ाम से औंधे मुंह गिरा उसने सरकारी खेमे में नई ऊर्जा भरने का काम किया। छब्बे गए चौबे बनने, दुबे बनके वापस आए की कहावत को चरितार्थ करते हुए विरोधियों ने मोदी में विश्वास की गर्जना की थी और उनमें आत्मविश्वास भरकर लौट गए। जहां एक ओर अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 126 मत पड़े वही सरकार के पक्ष में 325 मत पड़े, लगातार हुए उपचुनाव में जिस तरह से भाजपा को पराजय का सामना करना पड़ा था, उससे भाजपा के तेवर कुछ नर्म हुए थे। लेकिन बहुमत के इस विशाल अंतर ने उसे कठोर मुद्रा अख्तियार करने का मौका दे दिया। भाजपा नीत रालोआ के पास जितने सदस्य कागज पर है उससे कहीं ज्यादा मत उसे प्राप्त हुए।

भाजपा बुलेट ट्रेन में सवार करते हुए आगे निकल गई जबकि विपक्ष पैसेंजर गाड़ी में सिग्नल की राह देखता रहा। यूं भी कह सकते है कि विपक्षी एकता का बुलबुला बनने से पहले ही फूट गया। सरकार द्वारा विश्वास प्रस्ताव जीतने के बाद शेयर बाजार ने जिस तरह से उछाल ली उसे यही संदेशा लोगों तक गया, कि सरकार अभी भी अपने ट्रैक पर है।

यह बात सच है कि संसद की जिरह और चुनाव का रण इन दोनों में अंतर होता है। लेकिन संसद में सरकार को घेरकर चुनाव में मोदी को मात देने का विपक्ष का सपना आखिर सपना ही रह सकता है। इस दो दिवसीय चर्चा पर एक नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है कि मोदी को धूल चटाने के लिए विपक्ष को एक बड़े चमत्कार की जरूरत है। इसके लिए विपक्ष के पास अभी लगभग एक साल का समय है। मगर सोनिया गांधी से लेकर शरद पवार तक और राहुल गांधी से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक यह भूल नहीं सकते, कि जितना समय उनके पास है उतना ही समय नरेंद्र मोदी के भी पास है। अतः जो चमत्कार विपक्ष कराना चाहता है वही या उससे भी बड़ा चमत्कार नरेंद्र मोदी नामक जादूगर करवा सकता है।

लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा बिल्कुल कोरी रही। विपक्ष की तरफ से गंभीर हमला करने में कोई भी सफल नहीं रहा। राहुल गांधी ने जोरदार कोशिश की, उन्होंने लड़ाई की मुद्रा भी अच्छी तरह अख्तियार की। ऐसा लगने लगा था, कि शायद विपक्षी बेंच पर बिताए हुए चार वर्षों ने उन्हें राजनीति के गुर सीखा दिए है। भाषण के अंत में नरेंद्र मोदी को उनके द्वारा गले लगाना भले ही राजनीतिक पैंतरे के रूप में उल्लेखित हो, लेकिन उसके बाद जिस तरह की आंख मिचोली उन्होंने की और पकड़े गए उससे उनका नौसिखियापन फिर से उजागर हुआ। अपने समर्थकों को निराश करने में राहुल गांधी ने बड़ी ही महारत हासिल की है।

सन 2012 से लेकर भारतीय राजनीति के लगभग सभी प्रमुख खिलाड़ियों ने नरेंद्र मोदी की वाक्पटुता से समझौता कर लिया है। आज की तारीख में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और जन सामान्य को संबोधित करने में जो विशेषज्ञता मोदी ने हासिल की है उसके आसपास भी कोई फटकता हुआ नहीं दिखता। उनके इसी कौशल का एक और नज़ारा लोकसभा में देखने को मिला।

विश्वास मत प्राप्त करनेवाले सरकार को विजय मिली और इस प्रस्ताव को लानेवालों को अपना कर्तव्य पूरा करने की संतुष्टि मिली। लेकिन सबसे ज्यादा फजीहत शिवसेना की हुई। शिवसेना की भूमिका क्या है यह आखिर तक कोई समझ नहीं पाया। भाजपा को समर्थन देने या उसका विरोध करने को लेकर पार्टी में असमंजस का माहौल रहा। नौबत यहां तक आई, की शिवसेना भाजपा को समर्थन दे रही है, उसका विरोध कर रही है या अनुपस्थित रहकर इज्जत बचा रही है इसकी सुध लेना भी लोगों ने छोड़ दिया। आगामी समय में इसका असर जरूर देखने को मिलने वाला है। बताया जाता है, कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने महाराष्ट्र में अकेले के दम पर लड़ने के लिए कार्यकर्ताओं को आदेश दिए हैं। “मजबूर ये हालात इधर भी है उधर भी,” यह पंक्ति अगर किसी पर आज फिट बैठती है तो वह भाजपा और शिवसेना है।

बीजू पटनायक के नेतृत्व वाले बीजू जनता दल (बीजेडी) ने राजनीतिक सूझबूझ दिखाते हुए अविश्वास प्रस्ताव से किनारा कर लिया। कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी बनाए रखने वाले बीजेडी ने अब तक खुद को कई तूफानों से अलग रखा है। और इस मैच में, जिसका नतीजा पहले एक्शन से ही तय था, किसी का भी पक्ष लेना पार्टी ने मुनासिब नहीं समझा जो उसकी समझदारी का परिचायक है।

राजनीति में एक और मजबूर पार्टी है तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी अन्नाद्रमुक। लोकसभा में तीसरे नंबर के सदस्य जिस पार्टी के पास है उसकी भूमिका यूं तो महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन अन्नाद्रमुक आज नेतृत्व की कसौटी से गुजर रही है। उसका वजूद केंद्र की मोदी सरकार के रहमों करम पर कायम है। इसलिए उसका भाजपा के साथ जाना न किसी को खटक सकता है न आश्चर्यचकित कर सकता है। यह भी सही है, की अन्नाद्रमुक की घोर विरोधी द्रमुक कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाए हुए हैं और इसलिए वह उस खेमे में नहीं जा सकती।
कुल मिलाकर भाजपा की नैया अनुकूल हवाओं के सहारे आगे बढ़ रही है। तृणमूल कांग्रेस, धर्मनिरपेक्ष जनता दल (जेडीएस) और तेलंगाना राष्ट्र समिति जैसी चंद प्रादेशिक पार्टियों को छोड़ दे तो उसके सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं है। सपा और बसपा अभी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के फिराक में है। जिस तेलुगू देशम पार्टी ने यह प्रस्ताव लाया था उसकी और उसके नेता चंद्रबाबू नायडू की विश्वसनीयता हमेशा संदेह के घेरे में रही है। कमोबेश वही हाल महाराष्ट्र में एनसीपी का है।
कांग्रेस पर तंज कसते हुए मोदी ने कहा था
“न मांझी न रहबर
न हक में हवाएं है,
कश्ती भी जर्जर
यह कैसा सफर है।”
मोदी के नेतृत्व में भाजपा की हालत बिल्कुल इसके विपरीत है। उसके सामने चुनौती है तो बस अपनी नैया को डगमगा न देने की।

Kumaraswamy Rekindles Ugly Memories of Coalition Politics

Janata Dal Secular and Congress have managed to Grab the power in Karnataka pushing the Bharatiya Janata Party to the margin. H D Kumarswamy is in the Chief Minister’s chair. However, with the coalition comes the ugly memories of 1990s when themes of the supporting parties ruled the roost while issues of governance where put on back burner.
Karnataka’s new CM H D Kumaraswamy’s remark that he was at the “mercy” of Congress and not the people of state Signify the return of that era. With combined opposition parties coming together for the sake of fighting Narendra Modi and BJP, even as they are yet and decided over who would lead the pack, the chances of this kind of ‘obligatory’ politics become stark.
The Karnataka BJP leaders have flayed CM Kumarswamy saying that he was “deriding his own people” and doubted his credentials to serve them. However, their statement may fall under the ‘sour grape’ category. Surely, the statement of H D Kumaraswamy counts among the most brazen statements. It also signifies as to who would call the shots in this makeshift arranged that promises to last at least until next parliamentary elections.
Kumaraswamy had yesterday stated he was at the ‘mercy’ of the Congress, not the 6.5 crore people of the state. “Mine is not an independent government. I had requested the people to give me a mandate that prevents me from succumbing to any pressure other than you. But today I am at the mercy of the Congress. I am not under the pressure of the 6.5 crore people of the state,” he had said.
The coalition governments have been part of Indian polity since the elections in 1967 when the Congress’s monopoly of power in the states was broken for the first time. It started an era of short-lived governments and politics of defection – both of which were induced by Congress. The opposition parties formed coalition governments that included Swatantra, Jan Sangh, BKD, Socialists and CPI. Though CPM did not join these governments, it actively supported them.
Even Congress also formed coalition governments in some of the states where it had been reduced to a minority. However, none of these governments was stable enough and could not stay in power for long. Interestingly, Congress party has always believed that coalition rule is a prescription for instability and that it alone can provide stable governance. It Actually ran an election campaign on the plank of stability when two successive governments led by VP Singh and Chandrashekhar could not complete their terms. Ironically, the one led by Chandrashekhar came into existence because Congress has had lent support to it and eventually took it back honor flimsy pretext.
It was Atal Bihari Vajpayee who for the first time led governments with large coalition of parties. But that was never a smooth ride even for a sagacious leader like Vajpayee.
Even a quick flashback would show the difficult road that the nation has traversed. A debilitating instability had gripped the Nation in the latter half of the 90s. The Congress was voted out of power in May 1996 and BJP, for the first time, emerged largest party in the 11th Lok Sabha. Vajpayee’s first tenure as Prime Minister lasted only 13 days.
After pledging “unconditional” outside support “for full five years”, the Congress party destabilized two United Front governments in less than two years – and that too on patently flimsy excuses. It actually showed the Congress party’s contempt for coalition politics as it thought it could run the country on its own and smaller parties were a hindrance to its agenda.
Congress leaders pulled down the UF governments under the calculation that power would naturally be theirs after the early elections to the 12th Lok Sabha. In reality, the electorate handed a worse defeat to the Congress than in 1996 and gave an unambiguous mandate to Vajpayee. Even this bitter experience did not pursuade the power-hungry Congressmen to play power games and destabilize the government and eventually the nation. on the contrary, in the zeal to put their leader Sonia Gandhi, who had taken the baton just a year ago, they plotted pull down the NDA Government in April 1999. And brought it down with just one vote.
That forced yet another mid-term election on the nation and the outcome again was in favor of BJP. The Congress fared worse than before, the BJP did better than before and Vajpayee began his third term as Prime Minister, with a clearer and stronger mandate than before.
While achieving this, everyone knows what kind of tribulations Vajpayee had to undergo that ultimately impacted his performance as the Prime Minister. Since 2004, the Congress-led United Progressive Alliance ruled the country and its 10-year rule is known for loot, plunder and mismanagement.

With Narendra Modi’s victory in 2014, that era of blackmailing in the guise of coalition had come to an end. Under his leadership, BJP formed single handed governments in one after another state. In states like Delhi and Bihar, BJP did not win but the governments where stable. in Bihar, it was this murky state of coalition that forced Nitish Kumar to switch sides and join the NDA.
All those memories returned with swearing in of Kumarswamy when sworn enemies embraced each other to fight the bigger foe. What price they will have to pay in return of guarantee for their survival can be gauged from the statement that Kumar Swami has made. And this is just the beginning. We are still in the trailer but it is enough to give an idea as to what the picture will likely be.

जोकर के हाथों में लोकतंत्र की लूट

कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री के रूप में एच. डी. कुमारस्वामी जब शपथ ग्रहण कर रहे थे उस समय पूरे देश के सभी गैर-मोदी दलों के नेता वहां एकत्र हुए थे। मंच पर ही एक दूसरे का हाथ थाम कर इन सब लोगों ने अपने एक होने का संकेत उनके समर्थकों को दिया। उस दृश्य ने बता दिया, कि पिछले 4 वर्षों से केंद्र तथा देश के अधिकांश राज्यों में जिस प्रकार से भाजपा का रोड रोलर चल रहा है उसका जोरदार जवाब देने की तैयारी विरोधियों ने की है।

इस शपथग्रहण समारोह में पांच राज्यों के मुख्यमंत्री उपस्थित थे। पश्चिम बंगाल में मुहर्रम के लिए दुर्गा पूजा पर पाबंदी लगानेवाली ममता बैनर्जी, आंध्र प्रदेश में तिरुपति देवस्थान पर ईसाई महिला की नियुक्ति करनेवाले चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना में मुस्लिमों को आरक्षण देने के लिए जिद पर अड़े हुए के. चंद्रशेखर राव, केरल में दूसरा अरबस्थान बनाने के लिए लालायित पिनराई विजयन और दिल्ली में नौटंकी को संस्थात्मक दर्जा दिलानेवाले अरविंद केजरीवाल ने इस मंच को चार चांद लगाए। चंद्रबाबू नायडू और चंद्रशेखर राव इनमें कितनी पटती है, यह सबको पता है लेकिन वे वहां हाजिर थे। इतना ही नहीं एक दूसरे के खून के प्यासे अखिलेश यादव और मायावती भी वहां हाजिर थे। अरविंद केजरीवाल को मानो तक सभी दलों ने जैसे अपने कुनबे से बाहर रखा था और उन्होंने भी भ्रष्टाचार निर्मूलन के पुरोधा के रूप में खुद को महिमामंडित किया था। लालू प्रसाद यादव के गले मिलकर भी उनका भ्रष्टाचार का पाखंड बदस्तूर जारी था। किसी समय कांग्रेस को जी भर कर कोसनेवाला यह भ्रष्टाचारविरोधी वीर वहां कांग्रेस की पंक्ति में बैठा था।

इस समारोह में जिन्होंने एक दूसरे का हाथ पकड़कर कांग्रेस का हाथ मजबूत करने का बीड़ा उठाया उन सब नेताओं के पास मिलकर आज की घड़ी में लोकसभा की 265 सीटें हैं। फिर भी इनमें महाराष्ट्र की शिवसेना नहीं थी। यह दीगर बात है, कि यह जमावड़ा एक दूसरे की कितनी मदद करता है, इसको लेकर आशंकाएं बरकरार है। इन्हें देखकर भाजपा नेताओं के माथे की रेखाएं बढ़ गई होगी इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। भाजप से नाराज रहे लोगों को अच्छा लगे इसलिए ये दोनों कुछ दिन के लिए चेहरे पर चिंता लेकर घूमेंगे भी।

भाजपा के विरोध में इस अभियान का शंखनाद करने के लिए सेकुलरों को कुमार स्वामी के राज्याभिषेक से बेहतर मुहूरत नहीं मिल सकता था। एक ओर पूर्ण बहुमत ना मिलने का मलाल भाजपा को सता रहा हो, बहुमत ना मिलने के कारण पद छोड़ने की आफत येदियुरप्पा पर आई हो, मोदी शाह के हाथों से लोकतंत्र की इज्जत बचा सके ऐसा रिसॉर्ट विरोधियों को हाल ही में मिला हो – संक्षिप्त में कहे तो भाजपा के
सारे घाव हरे हो ऐसे समय में यह शंखनाद किया गया।

पर इन सब लोगों को एकत्र लानेवाला शख्स कौन है? वह है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। सन 2014 के लोकसभा और उसके बाद के लगभग हर चुनाव में एक बात दिख चुकी है माहौल चाहे जैसा भी हो, एक बार मोदी के मैदान में उतरते ही सारा दृश्य बदल जाता है। कर्नाटक में भी भाजपा को सबसे ज्यादा सीटें मिली लेकिन इनमें से अधिकांश सीटें मोदी के करिश्मे का नतीजा है। पार्टी के किसी भी अन्य नेताओं को मतदान से संवाद साधने में सफलता नहीं मिली। येदियुरप्पा प्रभावशाली नेता जरूर है लेकिन भाजपा को अकेले के बूते सत्ता तक ले जाने की ताकत उनमें नहीं है यह फिर एक बार फिर साबित हो गया। कर्नाटक में मोदी अकेले भाजपा को 100 के पार ले गए यह बात भाजपा के लिए वास्तव में चिंता की बात है।

अगले एक वर्ष में लोकसभा का चुनाव है और भाजपा के अलावा बाकी सारे दलों का एक ही मलाल है, कि उनके पास मोदी नहीं है! सीधे जनता से बात करने वाला और उनके मत खींचने वाला चेहरा उनके पास नहीं है। फिर अपने अस्तित्व की आशंका से भयभीत विरोधियों के मन में एक बात ने पैठ जमा ली है, कि मोदी और भाजपा को टक्कर देने हो तो सभी भाजपा विरोधी दलों को एकत्र आना ही होगा। फुलपुर आदि उपचुनावों के नतीजों ने उनके मुगालते को और हवा दी है, हालांकि बड़े चुनावों के नतीजे कुछ और ही कहते हैं।

मजे की बात यह, कि जिस कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण के लिए ये लोग इकट्ठा हुए थे वह कहां एकत्रित विरोधियों के दम पर चुनकर आए थे। कर्नाटक में कांग्रेस और जीडीएस ने चुनाव सिर्फ अलग-अलग नहीं लढ़ा, बल्कि एक दूसरे पर आग उगलते हुए लड़ा था। लेकिन मतदाताओं का जनादेश खंडित रूप से आया और हताश कांग्रेस ने उत्साहित जीडीएस को तश्तरी में रखकर सत्ता सौंप दी।

विधान सौध के सीढ़ियों पर बने मंच पर आसीन इन नेताओं के मन में क्या विचार आते होंगे? पिछले तीन दशकों से देश की राजनीति कितनी अच्छी चल रही थी? प्रादेशिक दलों का जोर बढ़ रहा था, जिसके पास 5-10 विधायक या 15-20 सांसद हो वह नेता भी राज्य के मुख्यमंत्री या केंद्र में प्रधानमंत्री को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकता था! सिर्फ अपनी जाति की गठरी संभलने की बात थी! कईयों के पोतो-पड़पोतों का का भी इंतज़ाम हो जाता था! कोई जेल में जाते समय अपनी बीवी को मुख्यमंत्री करता था, कोई रातोंरात इस दल से उस दल में जाता था या स्वाभिमान का दम देकर मंत्री पद हासिल करता था। इस पूरे तंत्र पर एक प्रहार किया मोदी नाम के व्यक्ति ने। दुष्ट व्यक्ति के विरोध में एकत्र आना ही होगा। लोकतंत्र बचाना ही होगा। मोदी नामक राक्षस को हराना ही है, ऐसा निश्चय उन्होंने किया होगा।

बैटमैन सीरीज की फिल्मों में से एक ‘डार्क नाइट राइज़ेस’ में आरंभ का एक दृश्य है। विलेन जोकर कई लोगों को साथ में लेकर बैंक पर डकैती डालने जाता है। उस समय सभी लोग जोकर के मुखोटे पहने हुए ही होते हैं। बैंक में प्रवेश करने के बाद ये लोग पहले वहां के लोगों को और कर्मचारियों को गोलियों से भूनते हैं। बाद में जैसे-जैसे रकम हाथ में आने लगती है वैसे वैसे ये सारे जोकर एक दूसरे को मारने लगते हैं। सबसे आखिर में पूरी रकम हाथ में हथियाने वाला जोकर (हीथ लेजर) हाथ आई लूट को लेकर भाग जाता है।

भारतीय लोकतंत्र की लूट ऐसे किसी जोकर के हाथ में ना पड़े तो गनीमत है।

जोकरच्या हाती लोकशाहीची लूट

कर्नाटकचे नवीन मुख्यमंत्री म्हणून हरदनहळ्ळी देवेगौडा कुमारस्वामी हे शपथग्रहण करत होते त्यावेळी देशभरातील सर्व मोदीरहीत पक्षांची मंडळी तिथे एकत्र जमली होती. व्यासपीठावरच मानवी साखळी उभी करून या सर्वांनी आपण एकत्र येणार असल्याचे आपापल्या अनुयायांना संकेत दिले. गेली चार वर्षे केंद्र तसेच देशाच्या बहुतेक राज्यांमध्ये ज्या प्रकारे भाजपचा मोदीछाप रोडरोलर फिरत आहे, त्याला एक खमके उत्तर देण्याची तयारी विरोधकांनी केली आहे.

या शपथविधी समारंभात पाच राज्यांचे मुख्यमंत्री हजर होते. पश्चिम बंगालमध्ये मोहरमसाठी दुर्गोत्सवाच्या मिरवणुकीवर बंदी घालणाऱ्या ममता बॅनर्जी, आंध्र प्रदेशात तिरुपती देवस्थानावर ख्रिस्ती महिलेची नियुक्ती करणारे चंद्राबाबु नायडू, तेलंगाणात मुस्लिमांना आरक्षण देण्यासाठी इरेला पेटलेले चंद्रशेखर राव, केरळमध्ये प्रति-अरबस्थान निर्माण करण्याचा विडा उचललेले पिनराई विजयन आणि दिल्लीत नौटंकीला संस्थात्मक स्वरूप प्राप्त करून देणारे अरविंद केजरीवाल यांनी या व्यासपीठाला शोभा आणली होती. चंद्राबाबु नायडू आणि तेलंगाणाचे चंद्रशेखर राव यांचे सख्य जगजाहीर आहे. पण ते तिथे हजर होते. इतकेच कशाला, एकमेकांचे हाडवैरी असलेले अखिलेश यादव आणि मायावती हेही तिथे हजर होते. अरविंद केजरीवाल यांना आजवर सर्व राजकीय पक्षांनी काहीसे गावकुसाबाहेर ठेवलेले आणि त्यांनीही भ्रष्टाचारनिर्मूलन शिरोमणी या नात्याने आपले सोवळे टिकवून ठेवले होते. अगदी लालूप्रसादांना मिठी मारल्यानंतरही त्यांचा हा भ्रष्टाचारनिर्मूलनाचा दंभ गेलेला नव्हता. एकेकाळी काँग्रेसला करकचून शिव्या घालणारा हा शुद्धीबहाद्दर तिथे काँग्रेसच्या पंक्तीत मानाने बसला होता.
या समारंभात ज्यांनी एकमेकांचा हात धरून काँग्रेसचा हात मजबूत करण्याचा प्रण केला, त्या सर्व नेत्यांकडे मिळून आजच्या घडीला लोकसभेच्या 265 जागा आहेत. तरीही यात महाराष्ट्रातील ‘सत्तारोधी’ शिवसेना नव्हतीच. हा गोतावळा आता एकमेकांना किती मदत करतो, हे येणारा काळच ठरवेल. बिनभाजपी नेत्यांची ही गर्दी पाहून मोदी-शहा आणि भाजपी नेत्यांच्या कपाळावर आठ्या उमटल्या असतील तर त्यात नवल नाही. भाजपवर खप्पामर्जी असलेल्यांना बरे वाटावे म्हणून ही जोडगोळी काही दिवस चेहऱ्यावर चिंता मिरवतीलही.

भाजपविरोधातील या मोहिमेचा शंखनाद करण्यासाठी सेक्युलरांना कुमारस्वामीच्या राज्याभिषेकापेक्षा आणखी चांगला मुहूर्त शोधूनही सापडला नसता. पूर्ण बहुमत न मिळाल्याची खंत भाजपला भंडावणारी. येडियुरप्पांना बहुमत न मिळाल्यामुळे पद सोडण्याची नामुष्की आलेली. मोदी-शहांच्या हातून लोकशाहीची अब्रू वाचवू शकेल असा रिसॉर्ट विरोधकांना नुकताच सापडलेला. थोडक्यात म्हणजे भाजपच्या सर्व जखमा ताज्या-ताज्या असतानाच हा शंखनाद करण्यात आला.

पण मुळात विळ्या-भोपळ्यांची ही मोट घालणारा मूळ शेतकरी कोण आहे? तो आहे पंतप्रधान नरेंद्र मोदी. वर्ष २०१४ची लोकसभा आणि त्यानंतरच्या जवळपास प्रत्येक निवडणुकीत एक गोष्ट दिसून आलीय, की वातावरण भले कसेही असो, मोदी एकदा रणांगणात उतरले की संपूर्ण चित्र बदलून जाते. अगदी कर्नाटकातही भाजपला सर्वात जास्त मिळाल्या, परंतु त्यातील बहुतेक जागा या मोदींच्या करिष्म्याचा परिणाम आहे. पक्षाच्या अन्य कुठल्याही नेत्याला मतदारांशी तसा संवाद साधता आलेला नाही. येडियुरप्पा हे प्रभावशाली नेते जरूर आहेत, परंतु एकहाती भाजपला सत्तेपर्यंत नेण्याचे सामर्थ्य त्यांच्यात नाही, हे पुनः पुनः सिद्ध झाले आहे. मोदींनी एकट्याने भाजपला शंभरीपार नेले ही भाजपसाठी खरे तर चिंतेची बाब आहे.

येत्या एक वर्षात लोकसभेची निवडणूक आहे आणि भाजपशिवाय झाडून साऱ्या पक्षांचे एकच दुखणे आहे – त्यांच्याकडे मोदी नाही! थेट जनतेशी संवाद साधणारा आणि त्यांची मते मिळवू शकेल, असा चेहरा त्यांच्याकडे नाही. मग अस्तित्वाचा प्रश्न भेडसावणाऱ्या विरोधकांनी मनाशी एक गोष्ट ठरवून टाकलीय – मोदी आणि भाजपला टक्कर द्यायची असेल तर भाजपविरोधी सर्व पक्षांनी एक यायला पाहिजे. फुलपूर इत्यादी ठिकाणच्या पोटनिवडणुकांनी त्यांच्या या समजाला खतपाणी घातलेय – अर्थात मोठ्या निवडणुकांच्या फलिताचे इंगित काही वेगळेच आहे. गंमत म्हणजे ज्या कुमारस्वामींच्या शपथविधीसाठी ते जमले होते ते तरी कुठे एकत्रित विरोधकांच्या जीवावर निवडून आले होते? कर्नाटकात काँग्रेस आणि धर्मनिरपेक्ष जनता दलाने निवडणूक वेगवेगळीच लढली नव्हती तर एकमेकांवर आग ओकत लढली होती. पण मतदारांचा जनादेश खंडीत आला आणि कातावलेल्या काँग्रेसने हरखलेल्या जेडीएसला सत्तेचे आवतण दिले.

विधानसौधाच्या पायऱ्यांवर व्यासपीठावर बसलेल्या या सगळ्या मंडळींच्या मनात काय असेल? गेली तीन दशके देशातील राजकारण किती छान चालू होते. प्रादेशिक पक्षांचा जोर वाढत होता. ज्याच्याकडे 5-10 आमदार किंवा 15-20 खासदार तो नेतासुद्धा राज्यात मुख्यमंत्र्याला आणि केंद्रात पंतप्रधानाला नाकदुऱ्या काढायला लावत होता. आपापल्या जातीचे गठ्ठे एकत्र केले, की झाले! अनेकांची नातवा-पतवंडांपर्यंतची नेतृत्वाची सोय व्हायची. कोणी तुरुंगात जाताना आपल्या बायकोला मुख्यमंत्री करायचा, कोणी रातोरात या पक्षातून त्या पक्षात जायचा. कोणी स्वाभिमानाच्या बेडकुळ्या काढून वट्ट मंत्रिपदे मिळवायचा. त्या सर्वांवर घाला घातला तो या मोदी नावाच्या माणसाने.

अशा या दुष्ट माणसाच्या विरोधात एकत्र यायलाच पाहिजे. लोकशाही वाचली पाहिजे. “लोकशाही ही ऊवांना मिळालेली सिंहाला खाण्याची शक्ती असते,” असे जॉर्ज क्लेमेंच्यू या लेखकाने म्हटले आहे. आपल्याला मिळतील तिथून उवा-पिसवा गोळा करू आणि मोदी नावाच्या राक्षसाला हटवू, असा निश्चयच त्यांनी केला असेल.

बॅटमन मालिकेच्या एका चित्रपटात (बहुतेक डार्क नाईट रायझेस) सुरूवातीचे दृश्य होते. खलनायक जोकर हा अनेकांना घेऊन बँकेवर दरोडा घालायला जातो. त्यावेळी सर्वांनी जोकरचेच मुखवटे घातलेले असतात. बँकेत शिरल्यावर ही मंडळी आधी तेथील लोकांना व कर्मचाऱ्यांना गोळ्या घालतात. नंतर जसजशी रक्कम हातात येऊ लागते तस तसे हे सर्व जोकर एकेकाला गोळ्या घालायला लागतात. सर्वात शेवटी संपूर्ण रक्कम एकहाती मिळालेला जोकर (हीथ लेजर) मिळालेली लूट घेऊन पोबारा करतो.

भारतीय लोकशाहीची लूट अशा जोकरच्या हाती पडण्याची वेळ येऊ नये म्हणजे मिळविली.

कर्नाटक का नाटक अभी बाकी है

कर्नाटक के नाट्य के पहले अंक का पटाक्षेप भाजपा को मिले हुए झटके से हुआ है। सत्ता सोपान के सबसे उंचे पायदान से उसे नीचे उतरना पड़ा है और वह भी बड़े बेआबरू होकर – सिर्फ आठ विधायक न मिलने की वजह से। कईयों का कहना है, बल्कि अधिकांश लोगों का कहना है, कि भाजपा को अव्वल तो सरकार गठन का दावा ही नहीं करना चाहिए था। लेकिन वह किया गया। कांग्रेस और जेडी (एस) के कुछ विधायकों को खरीदने का उसका इरादा काम नहीं आया – राजनीति में सफलता केवल इरादे और हौसलों से नहीं मिलती। भाग्य का साथ भी चाहिए। इस बार भाग्य डी. के. शिवकुमार नामक नेता के रूप में आड़े आया। कर्नाटक में त्रिशंकु विधानसभा के नतीजे आने के बाद से ही कांग्रेस ने शिवकुमार को कांग्रेसी विधायकों को एक साथ रखने की जिम्मेदारी सौंप दी थी। बेंगलुरु के ईगलटन रिसॉर्ट से लेकर हैदराबाद तक और फिर वहां से विधानसभा तक कांग्रेसी विधायकों को पहुंचाने की जिम्मेदारी को शिवकुमार ने सफाई से अंजाम दिया। यहां तक कि जब ईगलटन रिसॉर्ट में पुलिस हटा ली गयी तब भी शिवकुमार ने कहा कि कांग्रेस के विधायकों की सुरक्षा पर कोई खतरा नहीं है।
भाजपा शायद अपने मनचाहे विधायकों को पटा भी लेती, अगर मंत्रि पद और धन का टोटका चला लेने के लिए वे उपलब्ध रहते। लेकिन कांग्रेस और जेडी (एस) ने उन्हें इस तरह बंदी बना लिया था, कि भाजपा का संदेश उन तक पहुंच ही नहीं पाया। उन्होंने अपने विधायकों को बंद कर दिया था और उनके मोबाइल फोन तक जब्त कर लिए थे।
भाजपा के लिए वज्राघात तो उसी समय हो गया था जब उच्चतम न्यायालय ने बहुमत की परीक्षा के लिए अवधि 15 दिनों से घटाकर केवल 24 घंटे तक कर दिया था। अमित शाह की चर्चित और अप्रत्याशित चालें चलने के लिए भाजपा को मौका ही नहीं मिला। जब यह साफ हो गया, कि पार्टी बहुमत से दूर है और अंतिम रेखा को छून की ताकत उसमें नहीं है, तब बी. एस. येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद का इस्तीफा दे दिया। हालांकि उससे पहले उन्होंने विधानसभा में भावनात्मक भाषण देकर अपना पक्ष भी रखा। उस भाषण को सुनने के बाद लगा, कि विधानसभा के लिए प्रचार चुनाव के साथ समाप्त नहीं हुआ बल्कि वह सभागार में पहुंच गया है।

इस अंक की समाप्ति के बाद नाटक का दूसरा अंक शुरू हुआ है। राज्यपाल वजुभाई वाला ने जेडी (एस)-कांग्रेस गठबंधन के नेता एच. डी. कुमारस्वामी को आमंत्रित करने में कोई समय नहीं गंवाया। अब नई सरकार बुधवार को शपथ ग्रहण करेगी। और अब कर्नाटक की जनता के होठों पर एक ही सवाल है – यह सरकार कितने दिन चलेगी?
इस सरकार के अंतर्विरोध किसी से छुपे नहीं है। दोनों दलों ने न सिर्फ एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा, बल्कि पूरी कड़वाहट के साथ लढ़ा। ऐसे में इन दोनों का एकत्र आना एक विडंबना से कम नहीं है। किसी तिसरे को रोकने के लिए दोनों दलों ने भले ही एक दूसरे के गले लगाया है, लेकिन उनकी हाथों में वे छुरे अभी भी कायम है जो उन्होंने चुनाव के दौरान एक दूसरे पर चलाए थे। उस पर तुर्रा यह, कि मुख्यमंत्री के अपने सदस्य उसे समर्थन देनेवाले दल से आधे से भी कम है। भाजपा को किसी भी तरह से सत्ता तक पहुंचने से रोकने के लिए कांग्रेस ने बहुत ही सस्ते में खुद का सौदा किया है।
खुद को गैर-सांप्रदायिक कहलानेवालों का उम्मीदभरा अनुमान यह है, कि भाजपा के डर के चलते ये कांग्रेस और जेडीएस लंबी अवधि तक गृहस्थी चला सकेंगे। ऐसे लोगों को कुमारस्वामी का इतिहास या तो पता नहीं या वे उससे आंखे मूंद लेना चाहते है। कुमारस्वामी और देवेगौड़ा भारत के उन राजनीतिक चरित्रों में से है जिनकी गिनती नितांत अवसरवादियों में की जा सकती है। कुमारस्वामी को किसी विचारधारा से लेना देना नहीं है। कांग्रेस के सहारे सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बाद वे अगर कांग्रेस के असहज महसूस करने लगे तो पाला बदलकर भाजपा के साथ भी आ सकते है। ऐसे में भाजपा भी उन्हें समर्थन देने से नहीं कतराएगी क्योंकि जो खेल कांग्रेस ने खेला क्या वह भाजपा नहीं खेल सकती? कर्नाटक के खजाने से भाजपा को दूर रखने के लिए अगर कांग्रेस जेडीएस के सामने गिडगिडा सकती है तो क्या भाजपा जेडीएस को सहारा नहीं दे सकती?
इसके साथ ही यह उम्मीद करना, कि विरोधी भाजपा, जिसके सदस्य लगभग इन दोनों दलों के कुल सदस्यों जितने है, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेगी। यह वह भाजपा है जिसके मूंह सत्ता का खून लग चुका है। कश्मीर से लेकर कर्नाटक तक वह हर जगह अपना झंडा गाड़ने की ताक में रहती है। जिस पार्टी के पास रेड्डी भाईयों से विधायकों के शिकारी हो, उसके लिए आंकडों का इंतजाम महज़ समय का सवाल है।
और कांग्रेस का यह चरित्र रहा है, कि जिस दल को उससे समर्थन मिला है उसकी सरकार कभी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। इसका सबसे प्रखर उदाहरण तो कुमारस्वामी के पिता देवेगौड़ा ही है जिन्हें कर्नाटक से उठाकर प्रधानमंत्री बनाया गया था और एक वर्ष के भीतर सत्ताविहीन किया गया था।
तो इसमें क्या शक, कि कांग्रेस जैसे बेवफा सहयोगी और भाजपा जैसे सत्ताकांक्षी विरोधी के चलते कुमारस्वामी सरकार एक पल के लिए भी स्थिर महसूस नहीं करेगी। हां, इतना जरूर है, कि भाजपा के विजय अभियान से हताशाग्रस्त और विरोधियों की एका का सपना बुननेवाले लिबरलों के लिए यह कुछ समय के लिए जरूर उम्मीद पैदा करेगी।

युवराज का इरादा, कर्नाटक का अड़ंगा

आखिर राहुल गांधी ने जता दिया, कि कांग्रेस को बहुमत मिलने पर प्रधानमंत्री बनने की उनकी तैयारी है। राजनीति में उतरने के बाद 14 वर्षों तक लूका-छिपी खेलने के बाद आखिर उन्हें पता चला, कि रण में उतरना है तो सिंहासन का लक्ष्य रखना लाजिमी है। यह पहली बार है, कि कांग्रेस के युवराज ने किसी भी तरह की जिम्मेदारी उठाने के लिए हामी भरी है। वरना अब तक वे सत्ता को विष बताकर राजनीतिक उपवास करते रहे जिसके तहत उनके पास कोई कुर्सी तो नहीं थी लेकिन अधिकार बराबर रहते थे।
कर्नाटक के पत्रकारों ने उन्हें पूछा था, कि यदि सन 2019 में कांग्रेस सबसे बडी पार्टी बनकर उभरी तो क्या वे प्रधानमंत्री बनेंगे? उसे उत्तर देते हुए उन्होंने एक सकारात्मक जवाब दिया। इस कदम को उनके बढ़े हुए आत्मविश्वांस का भी प्रतीक माना जा सकता है और उनकी मजबूरी का भी। आखिर वे अब कांग्रेस अध्यक्ष है और जिस तरह के परिवारवादी ढर्रे पर कांग्रेस चलती है, उसके चलते उनके अलावा कांग्रेस के पास अन्य कोई विकल्प है नही। कांग्रेस ने जब 2004 में बहुमत प्राप्त किया था, उस समय सोनिया गांधी के पास प्रधानमंत्री बनने का अवसर था लेकिन उनके इतालवी जन्म के कारण वे पद पर आसीन नहीं हो सकी। राहुल के संदर्भ में ऐसी कोई बाधा नहीं है। इसलिए अगर सचमुच कांग्रेस यह चमत्कार कर भी पाए, तो राहुल के अलावा कोई और नाम तो कांग्रेस के पास है नहीं। जब उखली में सर दिया तो मुसल से क्या डरना, इस कहावत के अनुरूप फिर युवराज ने भी ताल ठोंक दिया है। हालांकि, कौन प्रधानमंत्री बनना चाहता है और नहीं, यह फिलहाल मुद्दा नहीं है।
मुद्दा यह है, कि राहुल गांधी के इस आत्मविश्वा सपूर्ण पैंतरे में एक शर्त है। उनकी यह तैयारी एक इच्छा बनी रहेगी क्योंकि अगर उसे पूरी होनी है, तो कांग्रेस को 201 9 में लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना होगा। पिछले कुछ वर्षों में का इतिहास स्पष्ट बताता है, कि यह संभव नहीं है। यदि राहुल की इच्छा पूरी होती है, तो यह उनकी मेहनत और नीति का नतीजा नहीं बल्कि भाग्य का चक्र कहा जाएगा।
उनकी इस चुनौतीपूर्ण घोषणा में जान तभी आएगी अगर्चे उनकी पार्टी कर्नाटक में कुछ दम दिखा सकें। कांग्रेस अपने बूते पर किसी राज्य में बहुमत प्राप्त कर सकें, यह राहुल के लिए अपने नेतृत्व का सिक्का मनवाने की पहली शर्त है। कांग्रेस में उनका नेतृत्व बेरोकटोक चल सकता है, क्योंकि उस पार्टी की मानसिकता ही सामंतवादी और परिवारवादी हो चुकी है। लेकिन सन 2019 के चुनावों के लिए जब कांग्रेस दूसरे दलों के साथ साझेदारी करना चाहती है ऐसे में अपने नेतृत्व गुण निर्विवाद रूप से साबित करना राहुल के लिए महत्वपूर्ण है। उनके राजनीतिक अस्तित्व की यह पहली कसौटी है। और उनकी पाटी इस मामले में अब तक कोरी रही है।

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इस वर्ष कर्नाटक के बाद छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदी राज्यों में भी चुनाव है। लेकिन वैसा दमदार प्रदर्शन करने से पहले कांग्रेस को कर्नाटक की परीक्षा पास करनी होगी। राहुल के कांग्रेस उपाध्यक्ष रहते कांग्रेस 10 से अधिक राज्यों में चुनाव हार गई है। उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद भी हार का सिलसिला जारी है। भाजपा “दागी विरासत, सामंती सियासत” का नारा देकर कांग्रेस को घेरती आई है। हाल के दिनों में प्रधानमंत्री मोदी ने इस संघर्ष को नामदार बनाम कामदार का रूप दिया है। इसलिए कर्नाटक के चुनावों पर राहुल गांधी और कांग्रेस का भावी निर्भर है। यह वह राज्य है जो राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है और कांग्रेस के पाले में एकमात्र बड़ा राज्य है। अगर भाजपा वहां जीतती है तो उसके दक्षिण में विजय अभियान में रास्ते खुले हो जाएंगे। अगर कांग्रेस वहां अपनी सत्ता कायम रखती है तो माना जाएगा, कि वह एक गंभीर राजनीतिक खिलाड़ी है जिससे 2019 में उसकी चुनौती को भी गंभीरता से लिया जाता है। अगर सत्ता उसके हाथ से गई तो तृणमूल कांग्रेस और एनसीपी जैसे दल उस पर हावी हो जाएंगे। तृणमूल की ममता बैनर्जी ने तो वैसे भी कांग्रेस को 1-1 सीट बंटवारे का प्रस्ताव दिया है। राहुल गांधी ने अब तक ऐसा कुछ भी नहीं किया है, कि ये सारे क्षत्रप उनके झंड़े के तले एकत्र आएंगे।
कांग्रेस ने यह मुगालता पाल रखा है, कि प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के विरुद्ध लोगों में आक्रोश है और वह उसे अपने आप सरकार तक पहुंचा देगा जिससे युवराज स्वयं राजा बन जाएंगे। जबकि भाजपा और कांग्रेस दोनों से समान दूरी बनाए रखना चाहनेवाले अन्य विपक्षी दल तीसरे मोर्चे या फेडरल फ्रंट की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने पहले ही बिना लाग-लपेट के बता दिया है, कि राहुल के तहत काम करने में उन्हें जरा भी रूचि नहीं है। इसलिए राहुल को यह सुनिश्चित करना होगा, कि उनकी पार्टी 201 9 में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती है। पिछले कुछ वर्षों में उनके ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए यह न के बराबर लगता है।
राहुल की मंशा पर पानी फेरनेवालों में एनसीपी प्रमुख शरद पवार सबसे आगे है। पवार से जब पूछा गया कि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने के सपने पर उनकी क्या राय है तो उन्होंने कहा कि अभी यह कहना सही नहीं, किसकी कितनी सीट आएंगी। यह तो अभी कोई पक्के तौर पर नहीं बोल सकता है। पवार मानते है, कि अगर 2019 में गठबंधन की सरकार बनी तो कांग्रेस के समर्थन से वह पीएम की कुर्सी पर दावेदारी जता सकते हैं। और बाकी के क्षत्रप भी कमोबेश यही मानते है।
बहरहाल, राहुल ने अपने पत्ते तो खोल दिए है। अब आगे देखना है, कि कर्नाटक का ऊंट किस करवट बैठता और युवराज का अभियान किस दिशा में बढ़ता है।