युवराज का इरादा, कर्नाटक का अड़ंगा

आखिर राहुल गांधी ने जता दिया, कि कांग्रेस को बहुमत मिलने पर प्रधानमंत्री बनने की उनकी तैयारी है। राजनीति में उतरने के बाद 14 वर्षों तक लूका-छिपी खेलने के बाद आखिर उन्हें पता चला, कि रण में उतरना है तो सिंहासन का लक्ष्य रखना लाजिमी है। यह पहली बार है, कि कांग्रेस के युवराज ने किसी भी तरह की जिम्मेदारी उठाने के लिए हामी भरी है। वरना अब तक वे सत्ता को विष बताकर राजनीतिक उपवास करते रहे जिसके तहत उनके पास कोई कुर्सी तो नहीं थी लेकिन अधिकार बराबर रहते थे।
कर्नाटक के पत्रकारों ने उन्हें पूछा था, कि यदि सन 2019 में कांग्रेस सबसे बडी पार्टी बनकर उभरी तो क्या वे प्रधानमंत्री बनेंगे? उसे उत्तर देते हुए उन्होंने एक सकारात्मक जवाब दिया। इस कदम को उनके बढ़े हुए आत्मविश्वांस का भी प्रतीक माना जा सकता है और उनकी मजबूरी का भी। आखिर वे अब कांग्रेस अध्यक्ष है और जिस तरह के परिवारवादी ढर्रे पर कांग्रेस चलती है, उसके चलते उनके अलावा कांग्रेस के पास अन्य कोई विकल्प है नही। कांग्रेस ने जब 2004 में बहुमत प्राप्त किया था, उस समय सोनिया गांधी के पास प्रधानमंत्री बनने का अवसर था लेकिन उनके इतालवी जन्म के कारण वे पद पर आसीन नहीं हो सकी। राहुल के संदर्भ में ऐसी कोई बाधा नहीं है। इसलिए अगर सचमुच कांग्रेस यह चमत्कार कर भी पाए, तो राहुल के अलावा कोई और नाम तो कांग्रेस के पास है नहीं। जब उखली में सर दिया तो मुसल से क्या डरना, इस कहावत के अनुरूप फिर युवराज ने भी ताल ठोंक दिया है। हालांकि, कौन प्रधानमंत्री बनना चाहता है और नहीं, यह फिलहाल मुद्दा नहीं है।
मुद्दा यह है, कि राहुल गांधी के इस आत्मविश्वा सपूर्ण पैंतरे में एक शर्त है। उनकी यह तैयारी एक इच्छा बनी रहेगी क्योंकि अगर उसे पूरी होनी है, तो कांग्रेस को 201 9 में लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना होगा। पिछले कुछ वर्षों में का इतिहास स्पष्ट बताता है, कि यह संभव नहीं है। यदि राहुल की इच्छा पूरी होती है, तो यह उनकी मेहनत और नीति का नतीजा नहीं बल्कि भाग्य का चक्र कहा जाएगा।
उनकी इस चुनौतीपूर्ण घोषणा में जान तभी आएगी अगर्चे उनकी पार्टी कर्नाटक में कुछ दम दिखा सकें। कांग्रेस अपने बूते पर किसी राज्य में बहुमत प्राप्त कर सकें, यह राहुल के लिए अपने नेतृत्व का सिक्का मनवाने की पहली शर्त है। कांग्रेस में उनका नेतृत्व बेरोकटोक चल सकता है, क्योंकि उस पार्टी की मानसिकता ही सामंतवादी और परिवारवादी हो चुकी है। लेकिन सन 2019 के चुनावों के लिए जब कांग्रेस दूसरे दलों के साथ साझेदारी करना चाहती है ऐसे में अपने नेतृत्व गुण निर्विवाद रूप से साबित करना राहुल के लिए महत्वपूर्ण है। उनके राजनीतिक अस्तित्व की यह पहली कसौटी है। और उनकी पाटी इस मामले में अब तक कोरी रही है।

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इस वर्ष कर्नाटक के बाद छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदी राज्यों में भी चुनाव है। लेकिन वैसा दमदार प्रदर्शन करने से पहले कांग्रेस को कर्नाटक की परीक्षा पास करनी होगी। राहुल के कांग्रेस उपाध्यक्ष रहते कांग्रेस 10 से अधिक राज्यों में चुनाव हार गई है। उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद भी हार का सिलसिला जारी है। भाजपा “दागी विरासत, सामंती सियासत” का नारा देकर कांग्रेस को घेरती आई है। हाल के दिनों में प्रधानमंत्री मोदी ने इस संघर्ष को नामदार बनाम कामदार का रूप दिया है। इसलिए कर्नाटक के चुनावों पर राहुल गांधी और कांग्रेस का भावी निर्भर है। यह वह राज्य है जो राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है और कांग्रेस के पाले में एकमात्र बड़ा राज्य है। अगर भाजपा वहां जीतती है तो उसके दक्षिण में विजय अभियान में रास्ते खुले हो जाएंगे। अगर कांग्रेस वहां अपनी सत्ता कायम रखती है तो माना जाएगा, कि वह एक गंभीर राजनीतिक खिलाड़ी है जिससे 2019 में उसकी चुनौती को भी गंभीरता से लिया जाता है। अगर सत्ता उसके हाथ से गई तो तृणमूल कांग्रेस और एनसीपी जैसे दल उस पर हावी हो जाएंगे। तृणमूल की ममता बैनर्जी ने तो वैसे भी कांग्रेस को 1-1 सीट बंटवारे का प्रस्ताव दिया है। राहुल गांधी ने अब तक ऐसा कुछ भी नहीं किया है, कि ये सारे क्षत्रप उनके झंड़े के तले एकत्र आएंगे।
कांग्रेस ने यह मुगालता पाल रखा है, कि प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के विरुद्ध लोगों में आक्रोश है और वह उसे अपने आप सरकार तक पहुंचा देगा जिससे युवराज स्वयं राजा बन जाएंगे। जबकि भाजपा और कांग्रेस दोनों से समान दूरी बनाए रखना चाहनेवाले अन्य विपक्षी दल तीसरे मोर्चे या फेडरल फ्रंट की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने पहले ही बिना लाग-लपेट के बता दिया है, कि राहुल के तहत काम करने में उन्हें जरा भी रूचि नहीं है। इसलिए राहुल को यह सुनिश्चित करना होगा, कि उनकी पार्टी 201 9 में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती है। पिछले कुछ वर्षों में उनके ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए यह न के बराबर लगता है।
राहुल की मंशा पर पानी फेरनेवालों में एनसीपी प्रमुख शरद पवार सबसे आगे है। पवार से जब पूछा गया कि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने के सपने पर उनकी क्या राय है तो उन्होंने कहा कि अभी यह कहना सही नहीं, किसकी कितनी सीट आएंगी। यह तो अभी कोई पक्के तौर पर नहीं बोल सकता है। पवार मानते है, कि अगर 2019 में गठबंधन की सरकार बनी तो कांग्रेस के समर्थन से वह पीएम की कुर्सी पर दावेदारी जता सकते हैं। और बाकी के क्षत्रप भी कमोबेश यही मानते है।
बहरहाल, राहुल ने अपने पत्ते तो खोल दिए है। अब आगे देखना है, कि कर्नाटक का ऊंट किस करवट बैठता और युवराज का अभियान किस दिशा में बढ़ता है।

Can Shiv Sena Go It Alone?

The Shiv Sena, the party sulking for last almost four years, has decided to field its two candidates for the Nashik and Raigad-Ratnagiri-Sindhudurg local authorities constituencies for the Maharashtra Legislative Council elections. It effectively reinforces its stand to have no truck with Bharatiya Janata Party, its longtime ally and presently its bête noire. The election is scheduled to be held next month. A total of six local authorities constituencies would go to polls on May 21.
The politics in Maharashtra for the last few days has been marked by the overtures by BJP to form an alliance with Shiv Sena.Uddhav Thackeray, the executive president of Shiv Sena, announced earlier this year that the party would contest all future elections alone. The announcement was the culmination of a long drawn verbal duel between the two saffron parties. Ever since BJP rode to power, successively at the centre and in state, it rubbed its long time ally wrong way. In its zeal to acquire power on its own, BJP behaved with an aggressive high handedness that offended the party that have endured many a tempests together in over three-decade long journey.
Now the time has come for Shiv Sena to pay in the same coin. Its latest move is viewed as a snub to the BJP’s overtures. The Sena has announced Narendra Darade and Rajeev Sable for Nashik and Raigad-Ratnagiri-Sindhudurg constituencies, respectively as its candidates.The question is – can Shiv Sena maintain the momentum and pay the price of fighting its battles alone. The party may claim that it has a statewide presence but in reality, it is clustered in Mumbai, Konkan and to an extent Paschim (Western) Maharashtra area. Its support mainly from the urban areas. A large base of cadre has migrated first to the Maharashtra Navnirman Sena and now to BJP.
On the part of BJP, it indulged itself in many misadventures post-2014. Many of those misadventures actually paid dividends. However, the sense of realpolitik came soon and it started looking for mending fences with Shiv Sena. The BJP leaders including Chief Minister Devendra Fadnavis, Finance Minister Sudhir Mungantiwar and others have made no bones about their willingness to form an alliance with Shiv Sena. Even though Shiv Sena has resolutely said time and again that it will go alone, no one in political circles believed it. Shiv Sena clinging to power both in Centre as well as in state was seen as its fallibility.
uddhav thackeray devendra fadnavisIn fact BJP wants an alliance not only for this election to Legislative Council but also for next Lok Sabha and Assembly elections. Shiv Sena leadership has not only neglected those overtures, but discarded them out rightly. However, the changing dynamics of Maharashtra politics may force the party to have rethink of its steadfast and adamant stand.
The Congress and NCP that fought alone in last assembly election, against each other and against BJP as well as Shiv Sena also, are now coming closer. They have given enough signals that they may jump in the arena next time as one entity even at the national level. Congress leadership in the form of Rahul Gandhi and NCP (Sharad Pawar) have held meetings and deliberated on possible alliance. Since BJP has acquired many incomers from these parties. it may face no problem in facing the onslaught of combined strength of these parties. Moreover, it also has cadre that is already buoyed by successive victories of BJP in all levels of election. Shiv Sena can’t claim this type of comfort.
Moreover, CM Fadnavis has very shrewdly given prominence to MNS leader Raj Thackeray who is seen reviving his party’s lost fortune. By attacking Narendra Modi and Fadnavis as well, Raj Thackeray has tried to occupy opposition space that has been laying vacant due to the lackluster performance by Congress and NCP as opposition parties. Shiv Sena tried to play double game by being in power and at the same time being an opposition party. However, this plan did not work out very well. this was clear by its underperformance in elections after elections. So much so that it was humiliated in its own citadel Mumbai during the municipal election.
Shiv Sena’s strategy seems to rely on capitalizing on anti-incumbency factor and the anger over betrayal (by BJP). However, this anti-incumbency thing is a very dicey preposition – except for media and politically enthused social media circles, this factor has not been especially evident anywhere in the state. Again, this factor will benefit, if at all, to Congress NCP and not Shiv Sena because it was an equal partner in whatever the present government did or did not.
In such a scenario, Shiv Sena’s muscle flexing may actually backfire on it. The move may alienate it’s sympathizers and may erode of its voter base. For a solid display and exhibition of political strength, it may be a right move but for a long term gain and goodwill it may prove counterproductive.

ये धब्बे ऐसे धुलनेवाले नहीं!

कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने आखिर वह बात कबुल ही ली जिसे उनकी पार्टी लगातार नकारते आई है। खुर्शीद ने कांग्रेस को उसका वह दामन दिखा दिया जिससे वह कभी छुटकारा नहीं पा सकती। यह दीगर बात है, कि खुर्शीद ने कांग्रेस के दामन पर सिर्फ मुस्लिमों के खून के धब्बे होने की बात कही थी, जबकि सच यह है, कि उसका दामन मुस्लिम, हिंदू, सिक्ख ऐसे सभी जातियों और प्रांतों के लोगों के खून से सना है।
अपने दामन पर मुसलमानों के “खून के धब्बे” होने की बात कहकर खुर्शीद ने कांग्रेस को सकते में डाल दिया था। रविवार को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के डॉ. बीआर आंबेडकर हॉल में उन्होंने यह बात कही थी। और तबसे कांग्रेस बगलें झांक रही है। उनकी बात से पार्टी नेताओं के कान खड़े हो गए। कार्यकर्ताओं (बचे-खुचे) को काटो तो खून नहीं!
“1947 मे स्वतंत्रता के बाद हाशिमपुरा, मलियाना, मेरठ, मुजफ्फरनगर, मुरादाबाद, भागलपुर, अलीगढ़, बाबरी मस्जिद आदि में मुसलमानों के नरसंहार में कांग्रेस पर मुसलमानों के खून के जो इतने सारे धब्बे हैं इनको आप किन शब्दों से धोना चाहेंगे,” खुर्शीद से यह सवाल पूछा था एएमयू के एक निलंबित छात्र आमिर मिंटोई ने।
इस पर खुर्शीद ने कहा, ‘‘यह राजनीतिक सवाल है। हमारे दामन पर खून के धब्बे हैं। कांग्रेस का मैं भी हिस्सा हूं तो मुझे मानने दीजिये कि हमारे दामन पर खून के धब्बे हैं। क्या आप यह कहना चाहते हैं कि चूंकि हमारे दामन पर खून के धब्बे लगे हुए हैं, इसलिए हमें आपके ऊपर होने वाले वार को आगे बढ़कर नहीं रोकना चहिए?‘‘
कांग्रेस प्रवक्ता पी. एल. पुनिया ने कहा है, कि कांग्रेस पार्टी सलमान खुर्शीद के बयान से पूरी तरह अलग करती है। सलमान खुर्शीद पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं, लेकिन जो बयान उन्होंने दिया है उससे कांग्रेस की असहमति है।
आखिर कांग्रेस ऐसे कितने मामलों से पल्लू झाड़ते रहेगी? आजादी से पहले और आजादी के बाद भी कांग्रेस ने हर वर्ग विशेष को लक्ष्यित करते हुए अत्याचार किए है। कांग्रेस एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसने समाज के सभी वर्गों और लोगों को एकसमान प्रताडित किया है। शुरूआत तो बंटवारे के साथ ही हुई थी। उस वक्त पाकिस्तान से आए हिंदुओं को प्रताडित किया गया। अकेले महाराष्ट्र में ही ऐसी कई घटनाएं गिनाई जा सकती है।
उसके बाद महात्मा गांधी की हत्या के बाद आक्रोश के नाम पर कांग्रेसियों ने महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर अत्याचार किए। उनके घर फूंके, उन्हें अपने निवास और गांव से बेदखल किया। आलम यह है, कि पश्चिम महाराष्ट्र में आपको कई देहात ऐसे मिलेंगे जिनमें ब्राह्मण नहीं है। क्योंकि कांग्रेसियों के डर से समय ब्राह्मणों का बड़ी संख्या में पलायन हुआ। मान लिजिए, कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में जो हुआ उसका वह पहला प्रयोग था।

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लगभग एक दशक बाद यही कांग्रेस सरकार थी जिसने संयुक्त महाराष्ट्र के लिए आंदोलन करनवाले बेकसूर लोगों पर गोलियां बरसाई। उस आंदोलन में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार ने पूरा बलप्रयोग किया और 105 लोगों की जानें ली। ये लोग कौन थे? ये हर वर्ग, हर जाति के लोग थे।
इसी कांग्रेस के लोगों ने मराठवाडा में नामांतरण आंदोलन के नाम पर दलितों पर अत्याचार किए। तत्कालीन मराठवाडा विश्वविद्यालय का नाम बदलकर डा. बाबासाहब आंबेडकर विश्वविद्यालय करने की मांग दलित गुटों ने की थी। इसका विरोध करनेवाले गुटों में हालांकि शिवसेना जैसी पार्टियां भी ती लेकिन उनमें कांग्रेसी लोग अधिकतर थे। गांव-देहातों के दलितों का खून बहाया गया, कई जगहों पर सरकारी संपत्ति का नुकसान हुआ।
छिटपुट दंगों और झड़पों का तो जिक्र न करें तो ही बेहतर है। कांग्रेस ने किस-किसको अपना विरोधी नहीं बनाया? क्या कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने हिंदूओं को “भगवा आतंकी” नहीं बताया था? क्या कांग्रेस ने कश्मीर से पंडितों के निष्कासन को मौन संमति नहीं दी? क्या कांग्रेस ने श्रीलंका के तमिल गुटों को पहले सहयोग देकर फिर उनसे किनारा नहीं किया? क्या कांग्रेस ने सिक्खों के अलगाववाद को चिंगारी देकर फिर उसे बुझाने की कोशिश नहीं की।
तो यह दामन खून ही खून से लथपथ पड़ा है। यह धब्बे ऐसे धुलनेवाले नहीं है, क्योंकि आप एक सिरो पर धोने की कोशिश करते हो तो दामन का दूसरा सिरा खून से और रंग जाता है। समझ लिजिए खुर्शीद साहब!

मुखभंगांचे ऐक्ययत्न

opposition unity Indiaदेशात जेव्हा जेव्हा केंद्रातील सत्ताधारी पक्ष अडचणीत असतो, तेव्हा तेव्हा एक खेळ सुरू होतो. त्याला आघाड्यांचा खेळ म्हणतात. आपापल्या सुभ्यांची जहागिरदारी सांभाळणारे सगळे मनसबदार एकत्र येतात आणि आपण मिळून सत्ताधारी पक्षाला पराभूत करू, असे मनसुबे रचतात. साठच्या दशकापासून हा ऊरुस सुरू असून आता ताज्या परिस्थितीत त्याच खेळाचा ताजा अंक सुरू झाला आहे. भाजप व पंतप्रधान नरेंद्र मोदींना आव्हान देण्यासाठी सर्व विरोधी पक्ष आपापले बळ लावून एकजुटीचा प्रयत्न करत आहेत. आज सत्ताधारी असलेला भारतीय जनता पक्ष 1970 ते 90च्या काळात याच खेळाचा भाग होता आणि आजचा अंक त्याच पक्षाविरुद्ध होतोय, ही त्यातली जरा वेगळी गंमत.

या खेळाची सुरूवात केली ती स्वतःच्या विश्वासार्हतेची गंगाजळी खर्चून दिवाळखोर झालेल्या शरद पवारांनी. घटनेवर “हल्ला” होत असल्याचे कारण देऊन तिला वाचविण्यासाठी त्यांनी 26 जानेवारीला मोर्चा काढला होता. भाजपशी लढा देण्यासाठी विरोधी पक्ष नवी दिल्लीत29 जानेवारीला एकत्र येतील, असेही त्यांनी सांगितले होते. त्या मोर्चात पवार यांच्याबरोबर शरद यादव (बंडखोर जनता दल-यू नेते), डी. राजा (सीपीआय), हार्दीक पटेल (गुजरातचे पाटीदार नेते), दिनेश त्रिवेदी (तृणमूल काँग्रेस), सुशीलकुमार शिंदे (काँग्रेस), प्रफुल्ल पटेल, डी. पी. त्रिपाठी (राष्ट्रवादी), असे बहुतेक मोडीत निघालेले चेहरे होते (हार्दिकचा अपवाद करता).

पवारांनी म्हटल्याप्रमाणे दिल्लीत त्यांनी विरोधी नेत्यांना बोलावलेही होते. पण त्यात फारसे कोणी आले नाही. त्यामुळे परत तीन दिवसांनी संयुक्त पुरोगामी आघाडी (यूपीए) अध्यक्षा सोनिया गांधी यांनी आपल्या अध्यक्षतेखाली विरोधकांची बैठक घेतली. माजी पंतप्रधान डॉ. मनमोहन सिंग, काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, अहमद पटेल, गुलाम नबी आझाद आणि मल्लिकार्जुन खडगे, राष्ट्रवादी काँग्रेसचे अध्यक्ष शरद पवार; नॅशनल कॉन्फरन्सचे अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला; राजदचे जयप्रकाश नारायण यादव, तृणमूलचे डेरेक ओब्रायन, सीपीआयचे राष्ट्रीय सचिव डी. राजा आणि सपाचे रामगोपाल यादव यांनी बैठकीला हजेरी लावली.

पवारांची विश्वासार्हता एवढी, की ज्यांच्या भरवशावर त्यांनी मोर्चाची हाक दिली त्या प्रकाश आंबेडकरांनीच त्यांच्याकडे पाठ फिरविली. इतकेच नाही काल त्यांनी पवारांवरही हल्ला चढविला. म्हणजे किमान भारीप-बहुजन महासंघ तरी त्यांच्या गळाला लागणार नाही. हा, पण सीताराम येचुरी (माकपा) आणि माजी मुख्यमंत्री आणि काँग्रेसचे नेते पृथ्वीराज चव्हाण आणि माजी खासदार राम जेठमलानी मात्र प्रजासत्ताक दिनी मोर्चात उपस्थित होते.

“संविधानाने हमी दिलेल्या लोकांच्या मुलभूत हक्कांवर सत्ताधारी पक्षाने “हल्ला केला” आहे. भाजपाचा ‘विनाश’ करून देशाला वाचवू इच्छिणारे सर्व राजकीय पक्ष एकजुट होतील,” असा दावा येचुरी यांनी मारे जोरात केला होता.

“सरकार हुकूमशाहीकडे वाटचाल करत असून लोकशाहीतील सर्व धर्मनिरपेक्ष शक्तींनी भाजपशी लढा देण्याची गरज आहे,“ असे चव्हाण म्हणाले होते.
आता येचुरी आणि चव्हाण हे दावे करत असताना प्रत्यक्षात काय चालू होते?

डावे पक्ष म्हणजे कसे एकसुरात बोलणारे! खासकरून देशापुढील महत्त्वाच्या प्रश्नांवर एकमत असणे, हे त्यांचे खास लक्षण मानले जाते. पण मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पक्षाच्या केंद्रीय समितीच्या (पॉलिट ब्युरो) नुकत्याच झालेल्या बैठकीत काही वेगळेच चित्र पाहायला मिळाले. कोलकाता येथे झालेल्या या बैठकीचा उद्देश होता पुढील लोकसभा निवडणुकीसाठी व्यूहरचना करणे. पण त्यावरूनच पक्षात प्रचंड वादावादी झाली. अन् हे मतभेद शेवटपर्यंत निकाली निघालेच नाहीत. शेवटी त्यावर मतदान घेण्याचा तोडगा काढावा लागला. राजकीय ठरावांचे दोन मसुदे सादर करण्यात आले. यातील एक मसुदा पक्षाचे आजी सरचिटणीस सीताराम येचुरी यांचा आणि दुसरा मसुदा होता माजी सरचिटणीस प्रकाश करात यांच्या गटाचा होता. त्यात अखेर करात गटाला बहुमत मिळाले. त्यांच्या मसुद्याला 55 मते मिळाली, तर येचुरी यांच्या मसुद्याला 31 मते मिळाली.

येचुरी यांच्या प्रस्तावित काय होते? तर पुढील लोकसभा निवडणुकीत भाजपला हरविण्यासाठी काँग्रेससोबत आघाडी करण्याचा प्रस्ताव त्यांनी दिला होता. दुसरीकडे करात यांच्या ज्या प्रस्तावाला बहुमत मिळाले त्या प्रस्तावात काँग्रेसशी कुठलीही युती करण्याला विरोध केलेला होता. अर्थात सध्याची आंतरराष्ट्रीय परिस्थितीचे विश्लेषण व आर्थिक धोरणाबाबत दोन्ही धोरणांमध्ये एकवाक्यताहोती.

अर्थात काँग्रेसमुळे माकपमध्ये मतभेद होण्याची ही काही पहिली वेळ नाही. सन 2016 मध्ये बंगाल विधानसभा निवडणुकीतही काँग्रेसशी सहकार्य करायला करात गटाचा विरोध होता. अन् पक्षाच्या स्थानिक शाखेने काँग्रेससोबत अनौपचारिक सहकार्य करण्याचा निर्णय घेऊनही टाकला होता. मात्र पश्चिम बंगाल माकपचा तो निर्णय फारसा फळाला आला नाही. आज करात गटाच्या काँग्रेसविरोधाला मिळत असलेल्या पाठिंब्यामागे कदाचित तो अनुभवच असावा. एकीकडे तीव्र भाजपविरोध आणि दुसरीकडे काँग्रेसचे वावडे, अशा कात्रीत आज कम्युनिस्ट लोक सापडलेले आहेत. करात आणि येचुरी यांच्यातील द्वंद्व हे माकपच्या बंगाल आणि केरळ शाखेतील द्वंद्व या स्वरूपातही पाहता येईल. आताच्या बैठकीत करात गटाच्या ठरावाला व्ही. एस.अच्युतानंदन यांचा अपवाद वगळता केरळच्या सर्व सदस्यांनी पाठिंबा दिला, ते त्यामुळेच. दुसरीकडे बंगालच्या बहुतेक सदस्यांनी येचुरींच्या बाजूने मत दिले.

येचुरी यांच्या पक्षाचे हे हाल तर काँग्रेसमध्ये आगळेच. हे सगळे मनसबदार तर काँग्रेस म्हणजे तर खुद्द सल्तनतच. त्यामुळे या सर्व सरदारांच्या हाताखाली काम करणे काँग्रेसला कसे मंजूर होईल?

म्हणूनच येत्या लोकसभा निवडणुकीत काँग्रेस हीच विरोधकांच्या एकतेचा कणा बनेल, असे म्हटले आहे. तसेच नरेंद्र मोदी यांना पर्याय केवळ राहुल गांधीच असू शकतात, असेही पक्षाने म्हटले आहे. हा दावा केला आहे. ‘‘मोदींजीचा पर्याय केवळ आणि केवळ राहुलजी हेच आहेत. अन्य कोणीही होऊ शकत नाही. काँग्रेस आणि देशातील लोक राहुलजींना देशाचा पुढील पंतप्रधान म्हणून पाहू इच्छितात,’’ असे ते काँग्रेसचे माध्यम विभागाचे प्रमुख आणि मुख्य प्रवक्ते रणदीप सुरजेवाला यांनी पीटीआय वृत्तसंस्थेला दिलेल्या मुलाखतीत म्हटले आहे.

विरोधकांच्या एकजुटीबद्दल विचारले असता ते म्हणाले, की बिजू जनता दल, शिवसेना आणि आता तेलुगु देसमध्ये पक्ष हळूहळू वेगळे होत आहेत. तर ‘‘काँग्रेस वेगवेगळ्या पक्षांच्या एकतेचा कणा बनत आहे. ही एकता 2019 मध्ये बदलांचा आधार बनेल,’’ असे त्यांचे म्हणणे होते. याचा अर्थ मुलांच्या खेळात ज्या प्रमाणे क्रिकेटचे कौशल्य कोणाकडेही असो, ज्याची बॅट त्याची बॅटिंग पहिली या नियमाप्रमाणे काँग्रेसला खेळायचे आहे.

या असल्या अडेलतट्टूपणाला वैतागूनच नीतीशकुमार यांनी या लोकांना रामराम केला होता. बिहार विधानसभा निवडणुकीत नितीशकुमार यांच्या नेतृत्वाखालील महागठबंधन करून जदयू आणि कॉंग्रेसने भाजपचा धक्कादायक पराभव केला होता. पण गेल्यावर्षी जुलैमध्ये नितीशकुमार (पर्यायाने जेडीयू) पुन्हा भाजपच्या नेतृत्वाखालील एनडीएत परतला होता. राष्ट्रपतीपदाच्या निवडणुकीतही भाजपाविरोधी आघाडी उघडण्याचे प्रयत्न असेच अपयशी ठरले होते.

थोडक्यात म्हणजे उष्ट्राणां लग्नसमये गर्दभाः समुपस्थिताः। परस्परं प्रशंसन्ति अहो रूपं अहो ध्वनिः।। अशी यांची अवस्था होती. आपापल्या राज्यात मुखभंग झालेल्या गणंगांनी एकत्र येऊन मांडलेला हा सत्तेचा सारीपाट आहे. त्याचे दान त्यांच्या बाजूने पडण्याची सध्या तरी सुतराम शक्यता नाही.

गुजराती प्रयोगशाळेचा ‘मेवा'(णी)

गुजरात हे राज्य हिंदुत्वाची प्रयोगशाळा म्हणून ओळखले जाते. हिंदुत्वाची प्रयोगशाळा होते तोपर्यंत तेथे उत्तम रस्ते, चोवीस तास वीज, पाणी, फ्लायओव्हर अशा गोष्टी होत होत्या. पण 12 वर्षे तेथे राज्य केल्यानंतर नरेंद्र मोदी उत्तरेकडे सरकले आणि दिल्लीत स्थानापन्न झाले. मग शिक्षक वर्गातून गेल्यानंतर पुढचे शिक्षक येईपर्यंत वांड मुलांनी गोंधळ घालावा, तसे जिग्नेश मेवाणी, हार्दिक पटेल आणि अल्पेश ठाकोर यांसारख्यांना रान मोकळे मिळाले. मग एक नवीन प्रयोग गुजरातमध्ये सुरू झाला – फाटाफुटीचा, विद्वेषाचा आणि घडवून आणलेल्या उद्रेकाचा.

याची सुरूवात गुजरातमध्ये ऊनात दलितांना मारहाण करून झाले. त्यावेळी त्या प्रकरणात काँग्रेसच्या स्थानिक लोकांचा संबंध असल्याच्या चर्चा होत्या. पण त्याचे बिल भाजप आणि मोदींच्या नावावर फाडून झाले. त्याचा यथावकाश परतावा मेवाणीला आमदारकीच्या रूपाने मिळाला.

याच प्रयोगाची फळे आता कोरेगाव भीमामध्ये दिसू लागली आहेत. वास्तविक ही फळे दिसावी, यासाठी गेले काही दिवस जाणीवपूर्वक प्रयत्न केले जाते होते. खाजवून खरूज काढावी, तशी मुद्दाम चिथावणी दिली जात होती. मेवाणीला शनिवारवाड्यावर बोलावणे, त्याच्यासोबत मौलानाला बसवणे, ब्राह्मणांच्या नावाने गरळ ओकणे हे सगळे उद्योग त्यासाठीच चालू होते.

नक्षलवाद्यांशी संबंध असल्याचा संशय असलेला “कबीर कला मंच’ शनिवारवाड्यावरच्या एल्गार परिषदेत पुढे होता. या मंचाच्या सदस्यांनी सादर केलेल्या नाटिकेतून पंतप्रधान नरेंद्र मोदी यांच्यावर सडकून टीका करण्यात आली. त्यानंतर प्रत्यक्ष या ‘विजयस्तंभा’च्या ठिकाणी काही तरी घडावे, असा प्रयत्न चालू होता.

त्यासाठी वढू गावातील शूरवीर गोविंद गायकवाड यांच्या समाधीची काही अज्ञातांनी तोडफोड केली. त्याबद्दल येथे झालेला वाद मिटलेला होता. तरीही तो उकरून काढण्यात आला. त्याचेच पर्यवसान पुणे-नगर महामार्गावरील दगडफेक आणि जाळपोळीत झाले. त्यात पोलिसांसह काही जण जखमी झाले असून एकाचा मृत्यू झाला आहे. आता या दगडफेक आणि हिंसाचारामुळे स्थानिक लोकांमध्ये कोरेगावला जाणाऱ्या दलितांबद्दल आकस आणि त्यांच्या मनात दलितांबद्दल अप्रीतीही निर्माण होणार! पण इकडे मेवाणी आणि त्याच्या कंपूचा हेतू साध्य होणार कारण दलित – मराठ्यांमध्ये बेबनाव झाला तरी उमर खालिद व मौलाना अजहरी हे मात्र दलितांसाठी जवळचे ठरणार. हाच यांचा डाव आहे.

दलित कार्यकर्त्यांवरील हल्ला हा दलित आणि मराठा संघर्ष पेटविण्याचा षड्यंत्राचा भाग असल्याचा आरोप रामदास आठवले यांनी केला आहे, त्यात म्हणूनच तथ्य आहे. अन् इथून पुढे प्रत्येक पाऊल सावधपणेच टाकावे लागणार आहे. ‘पेशवाई’ मसणात घालण्यासाठी हे लोक संपूर्ण समाजाचेच स्मशान करण्यासही मागे-पुढे पाहणार नाहीत.

आत्मैव रिपुरात्मनः?

कोरेगाव भीमा येथील विजयस्तंभ आणि ‘शौर्य दिन’ साजरा करण्यावरून बराज गाजावाजा करण्यात येत आहे. त्याची कठोर चिकीत्सा करणारा लेख स्नेही राजेश पाटील यांनी लिहिला आहे. त्यांच्या परवानगीने तो येथे प्रकाशित करत आहे.
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दि. १ जानेवारी रोजी महाराष्ट्रातील, पुण्याजवळ ‘कोरेगाव भीमा’ येथे ‘शौर्य दिन’ साजरा करण्याचे काही सामाजिक संस्थांकडून योजले आहे असे कळते! त्यातील एका निवेदनात “२०० वर्षांपूर्वी निर्धाराने भीमा कोरेगावच्या युद्धात महार सैनिकांच्या नेतृत्त्वात इतर जातधर्मीय सैनिकांनी पेशवाई संपवली होती” असा उल्लेख आहे!! यात २०० वर्षे म्हणजे सन १८१८, हे युद्ध खरे तर परकी ब्रिटिश सत्ता व स्वदेशी हिंदुस्थानी मराठेशाही यांच्यात झाले होते व त्यात ब्रिटिशांच्या बाजूने जसे एतद्देशीय सैनिक होते तसेच मराठेशाहीच्या बाजूने देखील एतद्देशीय सैनिक लढले होते!! ही काही ‘दलित/बहुजन’ व ‘ब्राह्मण’ यांच्यातील लढाई नव्हती!! ‘

पेशवे’ म्हणजे ‘पंतप्रधान’ हे पद स्वतः छ. शिवाजी महाराजांनी निर्माण केले होते!! ‘पेशवे’ हे मराठा छत्रपतींचे पंतप्रधान होते! म्हणजेच ते मराठेशाहीचे प्रतिनिधित्व करत होते!! आणि युद्धातील जय – पराजय हा त्या युद्धात उतरणाऱ्या, एकमेकांच्या विरुद्ध लढणाऱ्या दोन पक्षातील सर्वोच्च दायित्व असलेल्या राजकीय सत्तांचा असतो!! म्हणून या युद्धातील जय वा पराजय याचे श्रेय/दोष ‘ब्रिटिश’ किंवा ‘मराठेशाही’ यांना देण्यात यायला हवे! व तेच ‘खरे’ इतिहासकार करतात!! (आणि या युद्धात तर तत्कालीन छत्रपती देखील होते असा देखील उल्लेख सापडतो!!) पण इथे मात्र एका बाजूला ‘दलित/बहुजन’ व दुसऱ्या बाजूला ‘पेशवे’ – म्हणजेच – ‘ब्राह्मण’असा जातीय रंग या घटनेला देण्यात येत आहे, असे या संस्थांच्या निवेदनातील भाषेवरून वाटत नाही का?

आणखी एक प्रश्न असा विचारावासा वाटतो कि, हाच जातीय तर्क जर वापरायचा झाला तर मग इतर घटनांच्या बाबतीत देखील तो लावायला हवा!! तो लावायची तयारी या संस्थांची आहे का? उदा. ब्रिटिशांच्या ‘जनरल डायर’ने पंजाब मधील जालियनवाला बाग येथे अनेक निरपराध हिंदुस्थानींना मारले होते!! त्यात डायरच्या ‘हुकुमा’वरून गोळ्या झाडणारे बहुसंख्य भारतीयच होते — त्यात दलित/बहुजन देखील असतील – व मरणाऱ्यात बहुसंख्येने शीख देखील असतील — आणि तसे जर असेल व या संस्थांच्याच तर्काने जायचे झाले तर ‘दलित/बहुजन यांनी निरपराध हिंदुस्थानींना गोळ्या घालून मारले’ असे म्हणण्यासारखे होणार नाही का? म्हणून हा तर्क किती घातकी व विषारी आहे याचा विचार सर्वांनी केला पाहिजे!!

या संस्था एकीकडे डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, छ. शिवाजी महाराज यांचे देखील नाव घेतात… यावरून एक आठवण करून द्यावीशी वाटते ती ही कि, माझ्या माहितीप्रमाणे बडोद्याच्या सयाजीराव गायकवाडांना छ. शाहू महाराजांनी डॉ. आंबेडकरांची शिफारस केली होती व त्या बळावर डॉ. बाबासाहेब हे देशातील व पुढे अमेरिकेत जाऊन पुढील शिक्षण घेऊ शकले व डॉक्टरेट मिळवू शकले!! त्यानंतर त्यांना नोकरी देखील बडोद्याच्या गायकवाड महाराजांनी दिली!! बडोद्याचे गायकवाड घराण्याचे राज्य हे छत्रपतींच्या अधिपत्याखालील अखिल मराठा साम्राज्याचा भाग असेलेल्या मराठेशाहीचेच अभेद्य अंग आहे! तसेच ‘दलितांना’ या देशाच्या इतिहासातील ‘पहिले आरक्षण’ मराठेशाहीचे वंशज, कोल्हापूरचे छ. शाहू महाराज यांनीच दिलेले होते!! म्हणजे, मराठेशाहीचे छत्रपतींच खरे ‘दलित मित्र’ होते असा होत नाही का? आणि पेशवे तर त्याच मराठा साम्राज्याचे म्हणजेच मराठेशाहीचे पंतप्रधान, म्हणजेच प्रतिनिधी होते!! याचा अर्थ, ‘पेशव्यांना’ विरोध म्हणजे मराठेशाहीलाच विरोध नव्हे काय? म्हणजे, आताचे काही दलित हे अंतिमतः ‘दलित मित्र’ मराठेशाहीलाच विरोध करताहेत असा त्याचा अर्थ होत नाही का? ही प्रतारणा नव्हे का?

आणखी एक मुद्दा मांडावासा वाटतो – तो म्हणजे या संस्था या घटनेला ‘जातीअंताचं प्रतीक’ असे म्हणताहेत !! याविषयी असे सांगावेसे वाटते कि, मराठेशाहीच्या सैन्यात देखील दलित होते हे काही वेगळे सांगायची गोष्ट नाही ! पण ते सर्व ‘मराठे’ म्हणून लढले व देशाला परकीय सत्तांपासून वाचविले!! ‘मराठा’ म्हणजे, समर्थ रामदास स्वामी यांनी ‘मराठा तितुका मेळवावा, महाराष्ट्र धर्म वाढवावा’ या संदेशातून – ‘शौर्य व वीरश्रीने ओतप्रोत, परकीय सत्तांशी लढून स्वदेशाचे व स्वधर्माचे रक्षण करणारा वीर’ म्हणजे ‘मराठा’ अशी ‘गुणवाचक’ व्याख्या केली आहे! ती ‘जातीवाचक’ नव्हे! म्हणजेच मराठेशाहीचे प्रतिनिधी असलेल्या पेशव्यांच्या सैन्यातील ‘दलित हे ‘मराठे’ म्हणून होते व ब्रिटिशांच्या सैन्यातील दलित हे ‘महार’ म्हणून होते आणि या संस्था म्हणतात त्याप्रमाणे ब्रिटिशांनी जर फक्त ‘दलित’ म्हणून दलितांना वागविले तर यात जातीयवाद कोण करत आहे? यातील कोणते संबोधन जातीवाचक आहे? यातील कोणत्या संबोधनाने ‘जातीअंत’ होऊ शकेल?

पुढील मुद्दा असा आहे कि – काही इतिहासकारांच्या मते ‘भीमा कोरेगावची लढाई हि काही अंतिम लढाई नव्हती !… त्यात मराठ्यांनी युद्ध नीतीचा भाग म्हणून थोडे युद्धाला तोंड फोडले व शत्रूला आपला पाठलाग करायला लावून खिंडीत गाठण्याचा देखील त्यांचा प्रयत्न असू शकतो! उदा. धर्मगड (बहादूरगड) ची लढाई मराठ्यांनी अशाच प्रकारे जिंकली होती!! तसेच, सर्व हिंदुस्थान जिंकून काढणारा औरंगजेब देखील मराठ्यांच्या याच नितीमुळे हैराण होऊन शेवटी याच महाराष्ट्रात गाडला गेला!! म्हणून ब्रिटिशांनी जर ‘कोरेगाव भीमा येथे मराठ्यांचा पराभव झाला’ असे लिहून ठेवले असेल तर हे विधान एकतर्फी होत नाही का?

तसेच, या संस्थांच्या एका पदाधिकाऱ्याने “मुस्लिमांनी सर्व शक्ती लावून (हिंदूंमधील)बहुजनांना ब्राह्मण धर्मापासून मुक्त केले पाहिजे!” अशा अर्थाचे संदेश दिले आहेत!! याचा अर्थ,हिंदूंना मुसलमान करण्याचा हा डाव नाही का? आणि असल्या कारवायांपासून आपण सावध राहिले पाहिजे अशी भूमिका दलितांसह सर्व बहुजनांनी घ्यायला नको का? आता, गिरिजन, वनजन, आदिजन, बहुजन, ब्राह्मण, क्षत्रिय, शैव, वैष्णव, शीख, जैन, बौद्ध इत्यादींसह सर्व हिंदूच आहेत!!

ब्राह्मणीधर्म हे विशेषण परकीय सत्तांनी हिंदूंमध्ये फूट पाडण्यासाठी आणले आहे असे म्हटले जाते! काही अभ्यासक विचारवंतांच्या मते, काही परकी पांथिक शक्ती, ‘इतर देशाशी प्रत्यक्ष युद्ध न करता, त्या देशातील समाजात अंतर्गत फूट पाडून यादवी माजविली कि अशा फूट पाडलेल्या समाजाला व त्याद्वारे राष्ट्रांना सहजपणे ताब्यात घेता येते’ अशा प्रकारच्या नीतीचे अवलंबन करतात, म्हणजे या दुहीमुळे स्वतः समाजच स्वतःचा शत्रू होतो!! आणि देश जर प्रगतीपथावर न्यायचा असेल तर आपल्यातील ‘बंधुभाव’ कसा दृढ होईल ते पाहिले पाहिजे- भगवद्गीतेतील आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः हे वचन एकट्या फक्त अर्जूनासाठीम्हटलेले नसून आपणा सर्वांसाठी आहे!! त्याला भारतीय समाज बळी पडू नये याची काळजी सर्वांनी घ्यायची आवश्यकता आहे!

शेवटचा व सर्वात महत्वाचा मुद्दा म्हणजे, अनेक लोक हा लेख वाचल्यावर म्हणतील की, ‘आम्ही त्या स्मारकावर जाऊ नये का?’ – मी म्हणेन ‘अवश्य जावे’ पण, स्मरण आणि वंदन – जे या मातृभूमीसाठी लढले त्यांचे करण्यासाठी!! या घटनेचे विश्लेषण एखाद्याने वरीलप्रमाणे केले तर ते चुकीचे असेल का?

राजेश पाटील

संदर्भ :
https://en.wikipedia.org/wiki/Battle_of_Koregaon

नारायण सेवा हीच नारायण सेवा

Some people are determined to be great, when the world refuses to accept their greatness, they turn out to be the largest dwarfs on the earth (काही जण महान बनण्याचा निश्चय करून बसलेले असतात. जग जेव्हा त्यांच्या महानतेला स्वीकार करत नाही, तेव्हा ते जगातील सर्वात मोठे खुजे ठरतात) असे एका लेखकाने म्हटलेले आहे. आज नारायण राणे जे काही करत आहेत, ते या व्याख्येत चपखल बसणारे आहे.

“मुख्यमंत्री करण्याचे आश्वासन काँग्रेसने पाळले नाही४ वेळा मुख्यमंत्रिपदाने हुलकावणी दिली,” असे सरळ सरळ सांगून पक्ष सोडण्याचे धार्ष्ट्य राणे दाखवतात. त्याच्या पुढच्याच वाक्यात कोकणी जनतेच्या सेवेसाठी मी व माझी मुले सदैव तत्पर आहोत, असेही सांगतात. महत्त्वाकांक्षेने माणसाला पछाडले की त्याचा किती अधःपात होतो, याचे यापेक्षा चांगले उदाहरण सापडणार नाही.

महाराष्ट्राचे ज्येष्ठ नेते आणि माजी मुख्यमंत्री असा मान नारायण राणे यांना मिळतोय तेवढ्यावर त्यांनी स्वस्थ राहायला हरकत नाही. पण मी म्हणजेच कोकण आणि मी म्हणजेच जनसमर्थन असा विचित्र समज नारायण राणेंनी करून घेतला. त्यामुळे ते जिथे जातील तिथे अस्वस्थ राहणे त्यांच्या नशिबी लिहिलेय. त्यामुळेच राजकीय अडगळीत पडलेले राज ठाकरेही “हा फुटबॉल कोणत्याच गोलीला आपल्याजवळ नको,” अशा शब्दांत त्यांची संभावना करतात तेव्हा त्यात ना काही वावगे वाटते ना आश्चर्य!

महाराष्ट्रात पक्ष सोडून दुसरा घरोबा करणाऱ्या नेत्यांची वानवा नाही. परंतु एखाद्या पक्षात जायचे, पोट तुडुंब भरेस्तोवर खायचे आणि पक्षाला अवकळा आली, की त्याच्या नावाने शंख करून नव्या कुरणाचा शोध घेण्यात राणेंनी महारत साध्य केली आहे. शिवसेनेत सगळी पदे भोगून झाल्यावर शिवसेना अडचणीत असताना त्यांनी त्या पक्षाला बोल लावत काँग्रेसची वाट धरली. आता काँग्रेसला घरघर लागली, की हे चालले नवीन घराच्या शोधात. बरे जायचे तर गुण्यागोविंदानेही जायचे नाही. आधीच्या पक्षाच्या नावाने मनसोक्त शंख करून जाणार!

राणेंनी मीच काँग्रेस सोडतो, असे म्हटले असले तरी काँग्रेसलाच सुटल्यासारखे वाटले असेल. उलट ते भाजपमध्ये जाणार म्हटल्यावर खरे तर भाजपलाच चिंता वाटायला हवी. हा अस्वस्थ अश्वत्थामा जिथे गेला तिथे त्याने विध्वंस केला. आज त्यांच्यामागे चार आमदारही नाहीत. त्यांच्या स्वतःचा तसेच मुलाचा जन्मभूमीत आणि कर्मभूमीत पराभव झाला. अन् तरीही आपणच श्रेष्ठ हा भाव काही जायला तयार नाही. नर सेवा ही नारायण सेवा हा समाजकारणाचा सिद्धांत राणेंनी ‘नारायण सेवा हीच नारायण सेवा‘ इथपर्यंत आणून ठेवली आहे. म्हणून जनतेची सेवा करण्यासाठी त्यांना मंत्रिपद दिलेच पाहिजे. त्यांच्या या उदात्त हेतूला हातभार लावण्यासाठी कोणी आतुर असेल, असे वाटत नाही. तरीही त्यांना सोबत घेऊन जळता निखारा पदरात घेण्याचा चंग बांधलेल्या सर्वांना शुभेच्छा!

हा मोठेपणा कोणाचा? उदार कोण?

महाराष्ट्रातील एखादा पत्रकार/ब्रँडेड विचारक जातो, तेव्हा तेव्हा बाळासाहेब ठाकरे यांच्याशी त्यांची वैयक्तिक मैत्री होती. पण बाळासाहेबांवर कठोर टीका करताना ते कधीही कचरले नाही, असे आवर्जून सांगितले जाते. म्हणजे बाळासाहेब ठाकरेंवर टीका करणे, ही त्या विचारवंत किंवा पत्रकाराची अर्हता ठरते. तितक्या प्रमाणात नाही, तरी त्याच स्वरूपात रा. स्व. संघ किंवा भाजपवर टीका करणे म्हणजे शहाणपणाची कमाल, असाही एक पंथ आहे.

म्हणजे महाराष्ट्रात विचारवंतांच्या दोन शाखा आहेत – एक, आम्ही बाळासाहेबांवर कठोर टीका केली म्हणविणारे किंवा ज्यांनी केली त्यांचे शिष्यत्व सांगणारी शाखा. दुसरी शाखा म्हणजे आम्ही लहानपणी शाखेत जात होते परंतु नंतर (वाचन वाढले तसे!) शाखेवर जाणे सोडले, असे सांगणारे. लिबरलांच्या गुहेत प्रवेश करायचा, तर शिवसेना-संघ-भाजप यांना घातलेल्या शिव्या हाच पासवर्ड ठरतो, हे त्यांना उमगलेले असते.

यातील गंमत अशी, की बाळासाहेब/शिवसेनेवर टीका करूनही मोठेपण मिळवता येते, संघाला शिव्या देऊन आपण प्रबुद्ध ठरतो, याची साक्ष हेच लोक देत असतात. पण पत्रकाराचा किंवा विचारांचा वसा सांगणाऱ्या प्रत्येकाचा धर्म जे जे खुपले ते सांगणे हा असतो. मग टीका करायची तर ती सगळ्यांवरच करावी. अन् ठराविक लोकांवर टीका करायची तर तीही करावी, पण मग निष्पक्षपाती म्हणून स्वतःचा तोरा तरी मिरवू नये. वैचारिकतेचे ढुढ्ढाचार्य बनू नये. पत्रकारिता म्हणजे दोन्ही बाजू मांडणे, अगदी जिथे एक बाजू आहे तिथे सुद्धा, अशी पत्रकारितेची एक व्याख्या आहे. पण बुद्धीचे गाठोडे फक्त आपल्याकडेच आहे, हा समज एकदा झाला की ज्ञान खुंटीला टांगायला कितीसा वेळ लागणार?

तुम्ही जहाल टीका करूनही त्यांनी तुम्हाला जवळ केले, तुमचा दुस्वास केला नाही, हे त्यांचे मोठेपण. बाळासाहेबांवर सातत्याने आगपाखड केलेल्यांनाही त्यांनी शत्रू मानले नाही, त्यांना मित्र म्हणून वागवले हा त्यांचा मोठेपणा. त्यांच्या विरोधकांचा नाही.

एरवी पुरोगामी आणि उदारवादी म्हणून ज्यांचे देव्हारे माजवले, त्यांचे विरोधक कसे आयुष्यातून उठले हे जगाने पाहिले आहे. विजय तेंडुलकर, निखिल वागळे, पुष्पा भावे असे बाळासाहेबांची विरोधभक्ती करून जगणारे लोक जगद्विख्यात झाले. पण शरद पवार, यशवंतराव चव्हाण यांच्या किती विरोधकांची नावे लोकांना ठाऊक आहेत? “शरद पवार मुख्यमंत्री असतानाही मी त्यांना कधी घाबरलो नाही,” असे आज बऱ्यापैकी सुस्थितीत असलेले किती पत्रकार छातीवर हात ठेवून सांगू शकतील?

शिवसेना सत्तेत असताना आणि बाळासाहेब ठाकरे सर्वसत्ताधीश असतानाही नारायण आठवलेंनी त्यांच्यावर कठोर शाब्दिक हल्ले चढवले. सत्तेची पत्रास न बाळगता आपला धर्म निभावला. त्याच आठवले यांना शिवसेनेने लोकसभेत पाठवले. याच्या उलट आज केंद्रात मंत्री असलेले एम. जे. अकबर यांचा किस्सा. एशियन एजचे संपादक असताना अकबर यांनी सोनिया गांधी यांच्या विरोधात एक लेख लिहिला होता. त्यामुळे संतापून त्यांनी व्यवस्थापनाला सांगून अकबर यांना काढायला लावले. अकबर हे राजीव गांधी यांच्या जवळचे असताना हे घडले, हे विशेष! मात्र त्यावेळी वाटली नाही तेवढी भीती आज कळबडव्यांना वाटू लागली आहे. वातावरणात असहिष्णूतेची मळमळ असल्याचे जाणवत आहे.

या अशा ठकबाजीमुळेच ब्रँडेड विचारवंतांची गोची झाली आहे. कोणी लिबरल म्हटले तर ती शिवी वाटते आणि नाही म्हटले तर शालजोडीतील दिल्यासारखी वाटते. ज्यांना आपल्या प्रतिस्पर्ध्याची थोरवी मान्य करण्याचा दिलदारपणा दाखवता येत नाही, किमान त्यांनी तरी स्वतःला उदारवादी म्हणवून घेऊ नये.